रश्मि विभा त्रिपाठी
1
कैसा दुनिया में हुआ, लागू यह कानून।
करता अपना ख़ून ही, अब अपनों का ख़ून।।
2
घर की हालत क्या कहें, कैसे हैं परिवार।
हर आँगन में उठ गई, अब ऊँची दीवार।।
3
प्यार- मुहब्बत है कहाँ, किधर दिलों का मेल।
दुनिया में अब चल रहा, बस पैसे का खेल।।
4
आज गले में झूठ के, पहनाते सब हार।
सच बेचारा हर तरफ, झेल रहा बस मार।।
5
आज ज़माने में चली, कैसी सुंदर रीत।
बहरे बैठे सुन रहे, सबके मन का गीत।।
6
आज कपट की राह में, बिछे हुए हैं फूल।
सच्चाई अब तो हुई, बस पाँवों की धूल।।
7
मीरा- मोहन- सा कहाँ, आज रहा है प्यार।
कलियुग में तो बन गया, अब यह इक व्यापार।।
8
घटना हर अख़बार की, ये ही करती सिद्ध।
आज आदमी बन गया, सचमुच में इक गिद्ध।।
9
अपने घर- संसार में, लग ना जाए आग।
दो पैरों वाले बहुत, बाहर घूमें नाग।।
10
गर्व न ऐसा तुम करो, ये ही कहता ईश।
रावण ने जिस गर्व से, कटा लिये दस शीश।।
11
जाने किसने कर दिया, लागू अध्यादेश।
जंगल के सब भेड़ियो, धर लो मानव- वेश।।
12
घर की छत पे भी कभी, नहीं बोलता काग।
पहले- सा अब ना बचा, सम्बन्धों में राग।।
13
कहीं किताबों में छुपे, मिलते नहीं गुलाब।
चाहत राँझा- हीर की, अब तो है बस ख़्वाब।।
14
मुरझाए, सूखे पड़े, सभी प्यार के फूल।
मन के जंगल में उगे, जबसे घने बबूल।।
15
नाहक सच्चे प्रेम की, तुम करते हो आस।
इस जग में अब रह गया, केवल भोग- विलास।
16
पक्ष झूठ का नहीं लिया, कह दी सच्ची बात।
फिर उसको संसार ने, बना दिया सुकरात।।
17
खून- पसीना एक कर, पाला राजा- पूत।
बड़ा हुआ तो बन गया, हाय वही यमदूत।।
18
छली अधम औ हैं यहाँ, डाकू, लम्पट, चोर।
इस जीवन की सौंप दें, कहिए किसको डोर।।
19
पल- पल आज बदल रहा, जाने कितने रंग।
मानव को यूँ देखकर, गिरगिट भी है दंग।।
20
कितना अच्छा देख लो, दुनिया का यह पाठ।
हमको लोग पढ़ा रहे, सोलह दूनी आठ।।
21
लक्ष्मण रेखा द्वार पे, इसीलिए दी खींच।
छद्मवेश ले फिर रहे, रावण औ मारीच।।
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