दोहा-हाइकु-माहिया और गीत का
कचूमर
रामेश्वर काम्बोज
‘हिमांशु’
‘हिन्दी
साहित्य कोश’ में उल्लिखित( डॉ राम सिंह तोमर,हिन्दी विभाग शान्तिनिकेतन) के अनुसार दोहा मात्रिक अर्द्ध सम छन्द है। ‘प्राकृत पैंगलम्’ के सन्दर्भ से आपने बताया कि इस छ्न्द के विषम चरणों ( प्रथम और तृतीय)
में 13-13 मात्राएँ एवं सम चरणों ( दूसरे और चौथे चरण) में 11-11
मात्राएँ होती हैं। सम चरण के अन्त में तुकान्त के साथ गुरु-लघु होना चाहिए । प्रत्येक
चरणान्त में यति होती
है। विषम चरणों के आरम्भ में जगण ( 1+2+1) मात्रा क्रम नहीं
होना चाहिए। तुलसी दास के दोहे का एक उदाहरण-
दुरजन
दरपण सम सदा, करि देखो हिय गौर ।
(
प्रथम और द्वितीय चरण-‘सदा’ तथा ‘गौर’ के बाद यति)
सम्मुख
की गति और है, विमुख भये कछु और ॥
( तृतीय और चतुर्थ चरण में ‘है’ और ‘और’ के बाद यति)
यति
अर्थात् विराम ( अर्ध विराम/ पूर्ण विराम)
यति के बिना दोहा नहीं होता है । यह यति ही दोहे को चार चरणों में
बाँटती है।
कुछ अति उत्साही , यशलोभी
कलाकारों ने हाइकु का भी दोहा बनाना शुरू कर दिया है ,
जबकि हाइकु की प्रथम और तृतीय पंक्ति में पाँच वर्ण ( अधिकतम 10
मात्राएँ) ही हो सकते हैं। इनकी नीयत के आगे यति गायब हो गई और दोहे की नियति पर संकट छा गया ।
जूनियर कक्षा के छात्र भी दोहे के अनुशासन को जानते- समझते हैं । एक महाकवि
हाइकु की टाँग तोड़कर दोहा बनाने की शल्य क्रिया में लगे थे । कुछ और भी हुआँ-हुआँ
करके पीछे दौड़ पड़े कि कहीं वे इस मैराथन दौड़ में पिछड़ न जाएँ। इस भगदड़ में वे यह
भी भूल गए कि दोहे के किसी भी चरण में दस मात्राएँ नहीं
होती । यही नहीं सेदोका के दो भाग ( 5+7+7=कतौता का आठवी शताब्दी के रूप
)को
अपना नाम देने का लोभ संवरण न कर पाना इनकी
इसी कलाबाज़ी का एक नायाब नमूना भी देखने को मिल जाएगा।
हाइगा में
चित्र की परिधि में ही हाइकु समाया होता है , लेकिन यहाँ
भी अति उत्साही लोग कम नहीं । चित्र कहीं तो हाइकु कहीं,
यानी चित्र के चौखटे से हाइकु एकदम बाहर और उसको नाम दे दिया हाइगा । हाइगा की शुरुआत करने वाले
जीवित होते तो अपना सिर पीट लेते।
एक मिश्रित वाक्य से
एक नहीं दो-दो हाइकु तैयार करने का कमाल भी देखने को मिल जाएगा । जब वे दो हाइकु किसी अधमरे गीत का
हिस्सा बने नज़र आते हैं तो डर लगता है कि कहीं इनके निष्प्राण गीत को किसी की
नज़र न लग जाए। अगर ऐसा हो गया तो पत्रिकाओं के पन्ने काले करने के लिए एक भीड़ उमड़
पड़ेगी , जो पाठकों पर बहुत भारी पड़ेगी।सबका कचूमर निकल जाएगा ।
इधर कुछ ऐसे ही लोग माहिया का भी क़त्ल करने के लिए लेखनी की तलवार
लेकर खड़े हो गए ,जो हाइकु की दुर्गति पहले ही कर चुके थे । उन्हें न
माहिया की लय का ज्ञान है, न 12+10+12 मात्राओं
के क्रम की और युग्म की जानकारी, न पहले और तीसरे चरण की तुकान्तता की जानकारी । माहिया के मोह से ग्रस्त
श्री काशिनाथ जी निर्मोही ने माहिया
–मोह में
जो उत्साह दिखाया वह
पाठकों को गुमराह करने में पर्याप्त सहायक है । इन्हें जो भी कुछ सूझा ,लिख मारा । सोना का तुक दुगुना लिखना सचमुच बहुत बड़ा मज़ाक है। मात्राओं से
इनका कुछ भी लेना देना नहीं। ये 12 के स्थान पर 16 और 10 के स्थान पर 14 मात्राओं
का प्रयोग करके इतिहास बनाने में लगे हैं ।प्रश्न छपने की भूख का नहीं , बल्कि सबसे बड़ा संकट है पाठकों को गुमराह करने का ।
इन पंक्तियों के माध्यम से मैं
कवि हृदय साथियों से यही निवेदन करना चाहता हूँ कि अच्छी रचना अपना जीवन स्वयं रचती
है । तिकड़म और छपास की प्यास साहित्य नहीं है । ऐसे बहुत से साथी हैं; जो किसी की एक
भी पंक्ति ( अच्छी
पंक्ति) की सराहना करने से बचते हैं; लेकिन
सीने में भारी हूक लिये फिरते हैं कि उनके कूड़े की भी तारीफ़ की जाए । जो अच्छा लिखता
है , उसके लिए आप यदि उत्साहवर्धक दो शब्द लिखेंगे; तो वह और अच्छा
लिखेगा । यदि घटिया लेखन का स्तुतिगान किया जाएगा तो उसी तरह के खर-पतवार और गाज़र घास की फ़सल उगती
जाएगी। इससे अच्छे रचनाकर्म की फ़सल भी नष्ट हो जाएगी ।प्रायोजित स्तुतियाँ करना चारण
का काम हो सकता है , संवेदनशील साहित्यकार का नहीं। मेरा
उद्देश्य केवल अपने साथियों को जागरूक करना है , किसी की निन्दा करना नहीं।