पथ के साथी

Sunday, April 11, 2021

1090-कृष्णा वर्मा की कविताएँ

 

कृष्णा वर्मा

 1-प्रतिकार 

 

बहुत कहा था करो उल्टा 

तुम माने

बारम्बा चेताया तुमको 

रहे अनजाने

बहुत किए संकेत तुम्हें 




कुछ
समझ आया

मानव तुझे बनाकर 

मैं तो ख़ुद पछाताया

कुपित किया मन मेरा

तेरी बेकद्री ने

इसीलिए दुख पसरा 

आज तबाही ले 

हक छीना बरबाद किए 

धरती अम्बर 

नीले को किया काला 

धुँधले शशि सूरज 

नदियों को किया मैला  

किए जंगल वीरान

दूजों के दु: दिखे तुझको  

निज सुख आगे

ख़ुद ने ख़ुद कमज़ोर किए 

हस्ती के धागे

देख शिथिल कैसे पड़ा 

आज तेरा विश्वास

हुनर पड़े बेबस तेरे 

चिंताओं के द्वार

देख नतीजा दौड़ का 

कैसे दुख हुआ तारी

तड़प रहा मन मीन सा 

कैदी चार दीवारी

सौ दिन चोरों के भले 

इक दिन साध का होए

जो जितना ज़्यादा चतुर 

उतना ज़्यादा रोए

देख वक़्त की चाल 

चलीं विपरीत हवाएँ

अपनों के लिए हुए आज 

अपने ही पराए।

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2-मन की पीर 

 

डगमगा कर कैसे

संतुलन खो रहे

भारी मन का बोझ

शिथिल से पाँव ढो रहे

दुविधाओं के पहरों ने

दिन-रात सताया

मजबूरी की देहरी चाह कर

लाँघ पाया

चुप-चुप रोता भीतर

मंगल गान लबों पे

ग़म पर परदा डाल हँसी का

मिलता सबसे

सारे सच को बिन जाने

सब तोहमत देते

पीर भरा हृदय

हो जाता टोटे-टोटे

झूठे दें इल्ज़ाम

रुलाएँ अपने खोटे

घर का मालिक घर में

शापित होकर जीता

कैसे बाँटे अमृत

घट जब खंडित रीता

व्यूहों की गर्हित संरचना

क्यों मेरा उद्धार करेगी

प्रश्नों की यह कठिन पहेली

कब सच को स्वीकार करेगी।

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