रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु‘
[ केन्द्रीय विद्यालय कटनी मध्य प्रदेश में जुलाई 2001 में गुलमोहर के पेड़ लगवाए थे । ये पेड़ अप्रैल 2005 में खिलने लगे थे ।इन पेड़ों से मेरा बहुत लगाव था । पूर्णिमा वर्मन जी के कहने पर अप्रैल 2006 में यह कविता लिखी गई । आगरा के रेलवे स्टेशन के वेटिंग रूम में यह कविता लिखी गई थी जो 16 जून को अनुभूति के गुलमोहर संकलन में छपी थी ।डायरी कहीं गुम हो गई। अनुभूति में 2006 की रचनाएँ नहीं मिली तो पूर्णिमा जी से निवेदन किया । उन्होंने कल कविता का लिंक भेज दिया ।कटनी फोन करके मैंने इनका हालचाल भी पूछा ।अब आप सबके लिए ]
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु‘
गर्म रेत पर चलकर आए,
छाले पड़ गए पाँव में
आओ पलभर पास में बैठो, गुलमोहर की छाँव में ।
गुलमोहर में छाई है
हरी पत्तियों की पलकों में
कलियाँ भी मुस्काईं हैं
बाहें फैला बुला रहे हैं ,हम सबको हर ठाँव में
चार बरस पहले जब इनको
रोप–रोप हरसाए थे
कभी दीमक से कभी शीत से,
कुछ पौधे मुरझाए थे
हर मौसम की मार झेल ये बने बाराती गाँव में ।
सज–धजकर ये आए हैं
मौसम के गर्म थपेड़ों में
जी भर कर मुस्काए हैं
आओ हम इन सबसे पूछें -कैसे हँसे अभाव में
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