कृष्णा वर्मा
अम्मा के आँचल में था
ख़ुश बचपन मेरा
चन्दा के घर था
परियों का डेरा
पलकों पर नींदें थीं
सपनों का फेरा
बाहों के झूले थे
काँधे की सवारी
पीठ का घोड़ा था
थी मस्ती किलकारी
छोटी -सी
चाहें थीं
भोली- सी
बातें
तनिक रूठ
जाते
थे सारे मनाते
गलियाँ बुलाती थीं
अपना बताती थीं
संगी थे, साथी थे
ख़ुशियों की थाती थी
रूठी अब राहें हैं
अपने पराए हैं
सपने न नींदें हैं
रातें जगाए हैं
दिखावा छलावा है
झूठ चालाकी है
अपनापा क़ब्रों में
प्रेम प्रवासी है
नानी औ दादी अब
बीती कहानी है
बाँचे व्यथा किससे
चहुँ दिश वीरानी है।
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2-अभिलाषा!
डॉ0 सुरंगमा यादव
शब्द-शब्द में ललक
वर्ण-वर्ण कह रहा
भारती की वंदना में
मुझको भी मिले जगह
बाग में खिले सुमन
मना रहे ये मन ही मन
तिरंगे में बँधूँ कभी
धन्य हो लूँ मैं जरा
दीप की है आरजू
सजाऊँ वीर-देहरी
शौर्य का बनूँ कभी
हाँ प्रत्यक्ष मैं गवाह।
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