अनिमा दास
1. प्रिया-मोहन (सॉनेट)
एक प्रहर में, मौनता की कई निशाएँ... क्षुब्ध होती हैं
इस तनु की गंध_ वाटिका में...अस्थियाँ वंशी बनतीं हैं
तुम दे जाते हो जन्मों का संगम..., मृदा
में रुधिर निर्झर
हृदय-सरि में पद्म सम...होता पुष्पित...व्यथा-पुष्कर।
बिंबित होता चित्र लुप्त भावों का, नित्य
अंजुरी में एक
मैं, मंद-मंद चलती पवन में गूँथती, श्वास-मुक्ताएँ
अनेक
तुम होते अंकुरित अशांत वसुंधरा के सिक्त वक्षस्थल से
मैं जीवित हो जाती, तुम्हारे निस्तल प्रेमिल मधु जल से।
तुम ही धीर हो, तृषा की तीर हो, तुम ही शीतल
सलिल
छायाहीन स्वरूप की काया तुम, मग्न मेघों
का कलिल
सहस्र पूर्ण कुंभ से, देह में है, पारिजात की मुग्ध
सुगंध
गिरिशीर्ष में जैसे दिवा की दिव्यता व स्तीर्ण मलयज गंध।
देखो, कज्जल होता विलीन, रजनी क्रमशः
होती चंद्रप्रभ
मोहना! आलिंगन में है नक्षत्र, किंतु,
प्रिया है नीरव निष्प्रभ।
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2. मेघ मल्हार (सॉनेट)
तुम गा रहे हो मेघ मल्हार प्रियवर, वन
पक्षी रो रहे
उमड़ रही है उन्मादी नदी प्रियवर, दृग हैं सो रहे
झर रही है अंतरिक्षीय मधु प्रियवर, मन-मोर
अधीर
वृक्षवासी हैं आह्लादित प्रियवर, इरा बहाए
नीर।
हृद-शाखाएँ पल्लवित प्रियवर, शब्दों में
अलंकार
तीर्ण देह पर शांत स्पर्श प्रियवर, अधरों
में झंकार
वक्ष अंबर का भीगता प्रियवर, आशाओं में
है गमक
तिमिर की परछाई गहन प्रियवर, मुख पर है
दमक।
पर्वत से बहता हिमजल प्रियवर, सुरों में
भी नीरद
पक्षियों का संगीत मधुर प्रियवर, पंखों में
भरें जलद
दामिनी संग नृत्यरत प्रियवर, इरा है लगी
प्रेम सरि
अम्लीय अश्रु मधुर प्रियवर, मदिर-सा लगे मेघावरि।
सघन गहन व्यथाओं में मलयज है सुगंधित प्रियवर
थिरकती वारि बूँद में पुष्परज है सुरभित प्रियवर।
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3.चित्रांगदा (सॉनेट)
तुम्हारे विक्षिप्त हृदय का, मैं,
हूँ एक मात्र भग्नांश
स्पंदन में मेरे, अभिगुंजित क्षताक्त कल्पित स्वन
मेरे विस्तृत आयुकाल का, मैं हूँ मात्र एक क्षणांश
तुम्हारे अधरों में है, चिरजीवित मृदुल स्वप्न ध्वन
मैं हूँ महार्णव के वक्ष पर दिग्भ्रांत तरंगित प्रवाह
हूँ, मैं उद्विग्न निम्नगा की उद्वेलित उर्मिल मौनता
हे चित्रांगदा! मैं आग्नेय शिला का तीव्र अंतर्दाह
हूँ इस विदीर्ण मन की अश्रुपूर्ण सिक्त निर्जनता
दसदिशाओं का, देखो! विवर्ण रूप, हो रही शुष्क;
ईरा की शीतल मृदलता विछोह में है शोकग्रस्त
तप्त वायु सम हो रहा दग्ध-विदग्ध, यह
धनुष्क
हे चित्रा! नियति के नियमों में प्रणय है परित्रस्त
प्रिये! है देहातीत यह आत्मिक परिरंभ, है
दैवीय
संघर्षरत जीवन मेरा, है अनावृत पीड़ा-मानवीय।
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4.मृगनयनी (सॉनेट)
हे, मृगनयनी! किसने किया श्वेत वस्त्र तुम्हारा विदीर्ण?
कौन भर गया कुंतल में यह भस्मित आशाएँ विशीर्ण?
प्राचीन भग्न स्तूप—सा लगे, तिरष्कृत तन-तरु तुम्हारा
धरा की यह है कौनसी ऋतु, तप्त है मन-मरु तुम्हारा।
है दृगों में निष्ठुर आषाढ़, क्यों हृदय में है प्रचंड निदाघ
निश्चल, नीरव, निरुद्देश्य है क्षिति,
मलिन हुआ शेष माघ
हे, कमलनयनी! किंवदंती के करुण क्रंदन की कामिनी!
क्यों हो मौन, इस महाद्वीप की मर्माहत मृण्मय मानिनी?
अधरों पर लिये क्षताक्त स्मिता का यह दृश्य विदारक
क्यों कर रही प्रतीक्षा त्राण की, जब
समय बना संहारक?
स्मृति तुम्हारी मृत रहेगी इस मृत्युलोक पर, हे
कुमारिका!
त्रस्त ध्वनि तुम्हारी होगी रुद्ध नभ गर्भ में, हे,
अनामिका!
धमनी में धावमान ध्वांत से हो रही आत्मा तुम्हारी मुक्त
सखी, देखो! ...वेदना, सहर्ष अस्थियों
से हो रही उन्मुक्त।
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5.मैं (सॉनेट)
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नीलाकाश की मुक्त विहंगिनी मैं, हैं
स्वर्णिम वीची मेरे पंख
लीन हो जाती जलद में जब नादित होता तेरा महा शंख
केंद्रित होती दृष्टि पटल पर असंख्य स्वप्न की तारिकाएँ
हृदय-उपवन में होतीं प्रस्फुरित सहस्र क्षुधित लतिकाएँ।
मधुरिम करो देह मृदा को, के मैं तीक्ष्ण व्यथाओं को पी लूँ
मृत माने संसार किंतु, महार्णव के अतल गर्भ में ही जी लूँ
अल्प सांध्य तम में, यह तन प्रतिच्छाया बन न लुप्त हो जाए
देवद्रुम-सा, कर अंकबद्ध मुझे ऐसे, के श्वास
अतृप्त हो जाए।
तृष्णा की मेघमालिनी बन, स्तीर्ण रहूँ अग्निस्नात गगन पर
मरुस्थल की मृगतृष्णिका-सी, होती रहूँ अनुभूत जीवन भर
क्षत सारे अलंकार बन जाए मेरे कि मैं हूँ शैलीय मालती
यज्ञवेदी पर गुंजित देव मंत्र के शेष श्लोक क्यों मैं पुरावती।
ईप्सा के मुक्ताओं से अभिपूर्ण, द्रवित
दृगों के कृष्णिम तट
क्या प्राप्ति-रेखाएँ होंगी विकसित, संतृप्त
होगा कल्पवट?
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6.मृत्यु
कलिका (सॉनेट)
इस संघर्ष की समाप्ति है तू, मैं केवल
अवशेष हूँ
अंत में मेरी प्राप्ति तू ही है, मैं केवल
निर्निमेष हूँ
अंगीकार हूँ तू, निर्णीत है मेरी समस्त क्रियाओं में
स्वीकार है मुझे तू, इस महायात्रा की प्रक्रियाओं में।
अंतःसलिला तू निर्धारित है, सहस्र युगों के प्रारंभ से
मैं देह निमित मात्र, तेरी सारी इच्छाओं के आरंभ से
श्रेष्ठ रही तू अंतिम कण पर्यंत, इस महा वलय
की
मैं तुच्छ निस्सीम तिमिर हूँ, अनिश्चित
महाप्रलय की।
पंचभूत की नायिका मैं, तू है मोक्ष मार्ग की सारथी
भाग्यचक्र की भग्न अक्ष मैं, हूँ माया
जड़ित स्वार्थी
है नक्षत्रपुंज की ज्योति राशि, है तू
स्वर्गीय अल्पना
मैं निशीथ का रुदन, हूँ वीभत्स काल की कल्पना।
हे, मृत्यु कलिका! हो पल्लवित, मनोरम
वा सुरभित
कर शुभ्रा मुझे, मैं अनंत काल से हूँ क्लांत व व्यथित॥
-0-Anima Das, Asstt. Teacher, New Stewart School, Mission,oad,
Buxibazar, Cuttack, Odisha-758001
animadas341@gmail. com