पथ के साथी

Sunday, August 25, 2013

कश्मीर -

 मंजु मिश्रा

बंद कर दो
खिड़की दरवाजे
इन हवाओं में दम घुटता है ....

 

गए वो दिन
जब महका करती थीं
यहाँ फूलों की वादियाँ
अब तो बस हर र से
आती है एक ही गंध
बारूद की .......

 

गए वो दिन
जब होती थीं रंगों की बहारें
यहाँ के चप्पे-चप्पे पे
अब तो खून टपकता है
यहाँ कलियों से ......

 

गए वो दिन
जब
गूँजते थे जर्रे-जर्रे से
मुहब्ब
त के तराने
अब तो बस आती हैं
मारो-मारो की आवाजें
यहाँ की गलियों से

 

गए वो दिन जब कश्मीर
हुआ करता था स्वर्ग धरती का
होते थे हरसूं प्यार के मंजर
अब तो कश्मीर को
कश्मीर कहने में भी
डर लगता है ......

 

बंद कर दो
खिड़की दरवाजे
इन हवाओं में दम घुटता है ....


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