पथ के साथी

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Thursday, September 7, 2023

1369

 1-आया नहीं बसन्त

डॉ. उपमा शर्मा  

  



साँसों के आरोह-अवरोह

चलते रहे दिग्दिगन्त। 

कितने मौसम बीत ग हैं। 

फिर भी आया नहीं बसन्त। 

 

पेड़ों पर पतझड़ का मौसम

रुक गया आकर क्यों इस बार

कोमल कोंपलें देखने को

थक गईं अँखियाँ पंथ निहार

स्वागत में अब इस आगत के

लिख डाले मैंने गीत अनन्त

कितने मौसम बीत ग हैं

फिर भी आया नहीं बसन्त

 

लिपट तितलियाँ ठूँठों से ही

करती रहती बस मनुहार। 

बसंत बिना सूने हैं मौसम

पुष्प बिना है  सूना संसार। 

अगन धरा पर बरस रही है

सूरज बन गया आज महन्त

 

कितने मौसम बीत ग हैं

फिर भी आया नहीं बसन्त

 

रूठ ग बागों से भँवरे

डाली कितनी हुईं  उदास

फूलों के मौसम में पतझड़

मिलने की टूटी है आस

अब पतझड़ नहीं जाने वाला

रुक गया हो जैसे जीवन पर्यन्त

कितने मौसम बीत ग हैं

फिर भी आया नहीं बसन्त

-0-

चूक / अनीता सैनी 'दीप्ति'

 


प्रिय ने

बादलों पर घोर अविश्वास जताते हुए

खिन्न हृदय से चिट्ठी चाँद को सुपुर्द की

मैंने कहा- यक्ष को पीड़ा होगी

उसने कहा-

बादल भटक जाते हैं

तब यही कोई

रात का अंतिम पहर रहा होगा

चाँद दरीचे पर उतरा ही था

तारों ने आँगन की बत्ती बुझा रखी थी

रात्रि गहरा काला ग़ुबार लिये खड़ी थी

जैसे आषाढ़ बरसने को बेसब्र हो

और कह रहा हो-

'नैना मोरे तरस गए आजा बलम परदेशी।'

ऊँघते इंतज़ार की पलकें झपकीं

मेरी चेतना चिट्ठी पढ़ने से चूक गई

चुकने पर उठी गहरी टीस

उस दिन जीवन ने नमक के स्वाद का

पहला निवाला चखा था।

-0-

Thursday, June 22, 2023

1332-प्रकृति के विविध रंगों में डूबी हृदयस्पर्शी कविताएँ : 'अनुगूँज'

 

डॉक्टर उपमा शर्मा


समय के साथ, साहित्य में परिवर्तन अवश्यंभावी है। मनुष्य के रुझान समय- समय पर बदलते हैं। साहित्यिक रुझान बदलना भी कोई आश्चर्य का कारण नहीं। छंदों के माधुर्य और सम्मोहन से निकल हिंदी में नई कविता का अवतरण हुआ। किसी भी भाषा में नई विधा का आविर्भाव अर्थात् किसी विधा में नए रूपों का उद्भव एक शुभ संकेत है। यह उस भाषा के निरंतर सृजनशील सामर्थ्य का परिचायक है। हिंदी कविता भी इसका अपवाद नहीं। यह सत्य है कि अनुशासन में रहकर प्रायः उत्तम कार्य संभव है; परंतु उतना ही बड़ा सच यह भी है कि कठोर अनुशासन की मर्यादा- सीमा को लांघकर ही कुछ नया कुछ आश्चर्यजनक रचा जा सके।

नई कविता के साहित्य- जगत् में आगमन से ऐसा ही हुआ। पाठकों को इस नई अतुकांत कविता का तीखा- कसैला स्वाद रुचिकर लगा। एक के बाद एक अनेक रचनाकारों की रचनाओं ने पाठक वर्ग को अपनी और खींचा। अनुपमा त्रिपाठी की कविताओं में पाठकों को गीत का माधुर्य और अतुकांत का तीखापन दोनों ही बखूबी मिलते हैं। उनकी प्रत्येक कविता अनुभव की तपती भट्टी से गुजरी हुई प्रतीत होती है। कवयित्री को प्रकृति से बेहद प्रेम है। उन्होंने अपनी कविताओं में बारिश,बादल ,सागर और पर्यावरण पर खुलकर कलम चलाई है। वे मानव के विभिन्न आडम्बरों पर भी कटाक्ष करती हैं। 

कभी पूजा

कभी इबादत कभी आराधन

जब भी मिलती है मुझे

भेस नया रखती क्यूँ है

ए बंदगी तू मुझे

नित नये रूप में मिलती क्यों है।

 

यूँ तो इस संग्रह की सभी कविताएँ दिल को छूती हैं। कवयित्री की कलम ने जिंदगी के कोमल और तीखे दोनों एहसासों को बड़ी कुशलता से पृष्ठों पर उकेरा है। कविता का बुनियादी उसूल है कि आपबीती को जगबीती और जगबीती को आपबीती बनाकर किसी भाव को पन्नों पर उतारा जाता है। लेकिन अनुपमा त्रिपाठी ने जगबीती को बहुत कुशलता से शब्दों में ढाला है। जीवन के हर रंग उनकी कविता में द्रष्टव्य होते हैं। उनकी रचनाएँ सीधी सरल भाषा में हैं जो सीधे मन को छूती हैं

 

उठती हुई पीड़ा हो

या हो 

गिरता हुआ

मुझ पर अनवरत बरसता हुआ

सुकूँ

 

उनकी कविता 'चमेली के क्षुप को' पाठक के मन को सीधे छूती है-

कुछ प्रयत्न ऐसे भी होते हैं

समूचे जीवन को जो गढ़ते हैं

कुछ आशाएँ ऐसी भी होती हैं

नित सूर्य संग उठती हैं।

 

 कवयित्री की कविता की भाषा सहज परिमार्जित है। अतुकांत कविता की विशेषता यही होती है कि इसमें सिर्फ भावनाओं को महत्त्व दिया जाता है। इस कविता में कोई नियम की पाबंदी नहीं होती; लेकिन लिखने का तरीका महत्व रखता है। अतुकांत कविता छंदमुक्त कविता के अंतर्गत आती है। अतुकांत कविता हमेशा सरल शब्दों में लिखी जाती है, जिसमें रचनाकार सीधी सरल भाषा में अपने भाव रखता है। इस कविता को पढ़ते-पढ़ते पाठक जब अंत में आते हैं, तो अंत का हिस्सा पढ़कर उन्हें इस कविता के पूर्ण होने का अहसास हो जाता है। यही अतुकांत कविता की बहुत बड़ी विशेषता होती है। अनुपमा की कविताओं में यह विशेषता स्पष्ट द्रष्टव्य है। अंत तक आते आते पाठक पूरी तरह कविता के भाव में खो जाता है। यथा

सुबह से शाम होती हुई जिंदगी को

लिख भी डालो लेकिन

रात तलक सूर्योदय न हो हृदय का

रात की सियाही को

उजाले से जोड़ोगे कैसे… . . ?

 हाइकु  एक ऐसी कविता है जिसमें अर्थ ,गंभीरता एवं भावों का सम्प्रेषण इतना गहन एवं तीव्र होता है कि वह पाठक के सीधे दिल में उतर जाता है। तीन पंक्तियों की पाँच सात पाँच के वर्णक्रम में लिखी जाने वाली इस कविता में भावों की उच्चतम सम्प्रेषण क्षमता एवं अति स्पष्ट बिम्बात्मकता स्थापित होती है। 

हाइकु केवल तीन पंक्तियों और कुछ अक्षरों की कविता नहीं है; बल्कि कम से कम शब्दों में लालित्य के साथ लाक्षणिक पद्धति में विशिष्ट बात करने की एक प्रभावपूर्ण कविता है।’

जिस हाइकु में प्रतीक खुले एवं बिम्ब स्पष्ट हों वह हाइकु सर्वश्रेष्ठ की श्रेणी में रखा जाता है। हाइकु अपने आकर में भले ही छोटा हो किन्तु घाव करे गंभीर चरितार्थ करता है। यह अनुभूति का वह परम क्षण है जिसमें अभिव्यक्ति ह्रदय को स्पर्श कर जाती है।कवयित्री के हाइकु इस कसौटी पर खरे उतरते हैं-

खिली लालिमा//देती अब संदेश/मिटी कालिमा

पर्यावरण को/दूषित नहीं करो/सचेतो जन

कुसुम खिले/पंखुड़ियाँ बोलतीं/खिलता मन

महके मन/भीगी सी है पवन /गुनगुनाऊँ

प्रेम जगाए /अनछुई भावना/सुनो तो सही

ये जिजीविषा/साथ नहीं छोड़ती/जियो तो सही

चाहे मनवा/आस घनेरी जैसी/शीतल छाँव

तपन बढ़े/कैसे दुखवा सहूँ/जियरा जले

सुनो न तुम/मेरी मन बतियाँ/नैना बरसे

ढलक जायें/आँसू रुक न पायें /छलके पीर

कविता का पूर्ण माधुर्य समेटे इन हाइकु में अनेक संकेत और बिम्ब छुपे हैं जो कवयित्री की प्रांजल काव्य-भाषा में मार्मिक ढंग से ध्वनित और अभिव्यक्त हुए हैं। पुस्तक में संग्रहित सारे ही हाइकु में , उसकी काव्यात्मक, मार्मिकता के साथ महत्ता उजागर हुई है । प्रथम हाइकु प्रकृति-बोधक है। यह सूरज, रोशनी और अँधेरी रात के अंतर्संबंध और प्रकृति-सौंदर्य का सुन्दर चित्र है । कवयित्री ने फूलों के खिलने पर मन प्रसन्नता को सुंदरता से बिम्बित किया है। प्रकृति मानव मन को आह्लादित करती है । कवयित्री इसे यूँ कहती हैं कि सुगंधित पवन से महका मन गुनगुना रहा  है । इन हाइकु से सिर्फ प्रकृति चित्रण के नहीं अपितु इससे अधिक के संकेत ध्वनित होते हैं - गहरे मानवीय संबंध जन्य दुःख-सुखानुभूति भी बिम्बित होती है। वियोगाकुल डबडबाई आँखों विरह वेदना दीख पड़ती है। इन हाइकु के तीनों पद अलग-अलग होकर भी एकार्थ केंद्रित हैंसाथ ही, प्रथम और तृतीय पद ईकारांत होने के कारण अतिरिक्त भाषागत लय का सुख भी देते हैं। इसी प्रकार अन्य उद्धृत हाइकु भी कवयित्री की क्षण की अनुभूति में गहरे और व्यापक सत्य के दर्शन कराते हैं। कवयित्री पर्यावरण सहेजने पर भी भरपूर ध्यान दिलाती हैं।उनके ये हाइकु निर्विवाद रूप से उत्तम हाइकु कविता की कोटि में आते हैं। स्थानाभाव के कारण सबका विश्लेषण यहाँ सम्भव नहीं है, फिर भी उद्धृत छठे हाइकु से ध्यान नहीं हटता जिसमें कवयित्री जिजीविषा का सुंदर बिम्ब खींचती हैं।

 


अनुपमा त्रिपाठी के संग्रह 'अनुगूँज' की कविताओं में अभिव्यक्ति के मुखर स्वर हैं।इन कविताओं में समय का एक तीखा बोध भी है। कविताओं में निहित प्रश्नों की आकुलता, संवाद, आश्चर्य और विस्मय की खूबियां उन्हें बार बार पढ़ने और सोचने पर मजबूर करती हैं।

अनुगूँ ( काव्य-संग्रह): अनुपमा त्रिपाठी,  मूल्य:250, पृष्ठ संख्या:127,प्रकाशन संस्थान 4268बी-3, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-110011 - 23253234/43549101/43704384

-0-डॉक्टर उपमा शर्मा,बी-1/248, यमुना विहार, दिल्ली110053


 

Wednesday, July 13, 2022

1224-गुरु

 डॉ .उपमा शर्मा

1

माता होती गुरु प्रथम,सविनय करो प्रणाम।

माँ के चरणों में सदा, बसते चारों धाम ।


बसते चारों धाम, ज्ञान नितदिन ही बाँटें

 कर कष्टों को दूर,  चुने ये पथ के काँटे। 

कह उपमा यह बात,  जुड़ा जीवन का नाता। 

रखती अपने गर्भ ,साँस देती है माता।

2

देते हमें प्रकाश वो ,आप जले ज्यों दीप।

गुरु रहे यूँ सँवारते,मोती उगले सीप।

मोती उगले सीप, चमक गुरु से ही पाते।

माटी रख कर चाक, सलौना रूप बनाते।

बन जायें पतवार, वही नैया यूँ खेते।

उपमा जोड़े हाथ, गुरु जब ज्ञान हैं देते।

-0-

Sunday, June 26, 2022

1220

 1-कुण्डलिया

डॉ. उपमा शर्मा

1


तुमसे ही ये मन जुड़ा
, दूर रहो या पास।

सुधियाँ देती हैं मुझे ,मोहक मधुर सुहास।

मोहक मधुर सुहास, साथ एक पल न छूटे

रब से ये अरदास,न बंधन अपना टूटे

मैं राधा तुम श्याम,कि मितवा, सात जनम से।

बने तुम मनमीत, दिलों के बंधन तुमसे

2

तरु जब काटे थे नहीं, ताल-कूप  अंबार।

नीर कहाँ से अब मिले, कर लो सोच-विचार।

कर लो सोच विचार, सूखती ताल-तलैया।

पर्वत बने मैदान, न लें फिर मेघ बलैया।

धरती होती क्लांत, न बरसेगा बादल तब।

सूखे चारों मास, काटते तुम ये तरु जब।

-0-

 

2-सपने-2

 

भीकम सिंह 

 


बीते दिनों की
 

यादों के 

कई सपने 

मेरी आँखों में 

छुपकर 

बड़े हुए हैं   

 

धड़कनों पे

मँड़राते रहे 

आषाढ़ से आषाढ़ 

सावन के 

बीचो-बीच 

खड़े हुए हैं 

 

जुगनू भर गए 

अबके अनाप- शनाप 

इसलिए 

फागुन में 

मिलने की जिद पे

अड़े हुए हैं   

 

बीते दिनों की 

यादों के 

कई सपने।

-0-

Monday, May 30, 2022

1215-दोहे-कुण्डलिया

 डॉ. गोपाल बाबू शर्मा

1

अँधियारा गहरा हुआ, फैला कहाँ उजास।

नहीं मौन को स्वर मिला, नहीं रुदन को हास

2


अभी राजसी ठाट का
, कहाँ हुआ है अन्त

पतन, पाप, पाखण्ड में, मस्त नए सामन्त।

3

चमक-दमक के दौर में, कौन करे पहचान

आज काँच को मिल रहा, हीरे का  सम्मान।।

4

सच सौ ऑसू रो रहा, झूठ मनाता मोद।

सौदागर ईमान का, बैठा सुख की गोद॥

5

मूल्य-हीन घोड़े हुए, हाथी फाकें धूल।

गदहों पर पड़ने लगी, अ रेशम की झूल ।

6

तृण औरों की आँख में, देखें, बनें कबीर

दिखे न अपनी आँख का, लोगों को शहतीर।।

7

पहन रही हैं आजकल, रातरानियाँ ताज।

आँगन की तुलसी मुई, हुई उपेक्षित आज

8

पात्र, कथा, उद्देश्य अब, बदल गए संवाद।

भूल शहीदों को गए, रहे शोहदे याद

9

द्वार बँटे, आँगन बँटे, बँटा हृदय का प्रेम ।

चूर-चूर दर्पन हुओं, सिर्फ़ रह गया फ़्रेम

10

घर पर यदि छप्पर नहीं, रिक्त उदर का कोष।

चौराहे की मूर्तियाँ , क्या देंगी सन्तोष ।

 

11

दंगे - दंगल हर ज, आया जंगल - राज

मगल की बातें कहीं, शनि के सिर पर ताज

12

नागफनी को क्यों रहे, फूलों की दरकार।

वह तो निशिदिन शोभती, कॉटों से कर प्यार।।

13

दोष किसी का, और को, मिलता है अंजाम।

सागर खुद खारा मगर, प्यास हुई बदनाम।।

14

सुन्दर योग्य सुशील वर, वही आज कहलाय |

जिसकी वेतन से अधिक, हो ऊपर की आय।।

15

बदनीयत संसार में, खूब रहे फल - फूल।

जिसकी नीयत नेक है, उसको यह जग शूल।।

16

धन है तो तू चौथ दे, कहे माफिया. राज।

वर्ना मारा जायगा, कोई. नहीं इलाज॥

17

आस्तीन में साँप अब, सन्तों के घर चोर।

भोलापन. गूँगा हुआ, छल-प्रपंच मुँहजोर

18

संकट में फिर द्रौपदी, लाज बचाए कौन।

मनमानी कौरव करें, कान्हा साधे मौन।।

19

जीते जी जिसके लिए, लोग बिछाते खार।

उसके शव को पूजते, चढ़ा पुष्प के हार।।

20

गज से ज़्यादा कीमती, हुए आज गजदन्त।

श्रद्धा-आदर पा रहे, छैल चिकनियाँ सन्‍त।।

21

आम आदमी पिस रहा, खास मारते मौज।

कहीं 'पूर्णमासी मने, कहीं न दीखे दौज।।

22

बगुले पाते हैं यहाँ, बार - बार सम्मान।

हंस उपेक्षित ही मरें, अपना देश महान्‌।।

23

जिनके मन में खोट हैं, वे ही बने कहार।

रह पाए महफूज क्यों, डोली आखिरकार।।

24

लोगों ने छल-धर्म से, खूब बनाए ठाठ।

रावणवंशी कर रहे, रामायण का पाठ

25

कथनी-करनी में दिखे, आज हर जगह भेद

चलनी परखे आचरण, लिए बहत्तर  छेद।।

-0-

2-डॉ.उपमा शर्मा

आया नभ वो छा गया,बादल करे कमाल।


रिमझिम-रिमझिम वो करे, नाचे दे- दे ताल।

नाचे दे दे ताल, सुर सभी मिलकर साधें।

होती दिन में रात, सूर्य अब बस्ता बाँधे।

ठंडी चले बयार, गीत दादुर ने गाया।

उपमा हो मन- मुग्ध, गगन जब बादल आया।

Tuesday, April 26, 2022

1201

1-केवट प्रसंग (चौपाई छंद )

 सुशीला धस्माना मुस्कान

वन  की  ओर  चले  रघुराई।


पावन  गंगा  मग   में  आई।।

प्रभु  केवट  को  परिचय देते।

चरण-धूलि   केवट  हैं  लेते।।1।।

 

दूर   वनों   में   हम अब  जाते।

मातु-पिता का वचन  निभाते।।

तुम  निज  नाव  हमें   बैठाना।

गंगा   पार    हमें    है  जाना ।।2।।

 

बड़े   भाग   रघुनाथ   पधारे।

जाग   गये हैं   पुण्य   हमारे।।

कई जन्म  है बाट   निहारी।

कृपा हो ग अवध  बिहारी।।3।।

 

जन्मों  से  थी  यह  अभिलाषा।

जाने  प्रभु  मम  मन की भाषा।।

श्यामल छवि प्रभु मुझको भाती।

दरस -आस थी  मुझे  जिलाती।।4।।

 

चरणन रज की महिमा न्यारी।

पाहन    बनता   सुंदर नारी।।

नाव   काठ   मेरी    रघुराई।

यह तो नार  शीघ्र बन जाई।।5।।

 

यही जीविका   नाथ हमारी।

खाए क्या  फिर संतति सारी।।

नाथ   उतारें  आप   खड़ाऊँ ।

पग पखार प्रभु   नाव चढ़ाऊँ।।6 ।।

 

मीठे बैन व चतुर  सुजाना।

समझ गये रघुवर भगवाना।।

प्रभु बैठाए  तरुवर   छाया।

केवट ने पानी   मँगवाया।।7।।

 

भूमि  बैठ  तब  पाँव  धुलाए।

निज परिजन सब बेगि बुलाए।।

चरणामृत  उन  सबने  पाया।

अपना जीवन  सफल  बनाया।।8।।

 

चरण   पोंछ    आसन  बैठाए।

केवट  जीवन  निधि  हैं पाए।।

कंदमूल  फल   केवट    लाया।

प्रभु को भोजन तब करवाया।।9।।

 

नाव चढ़ा तब   पार उतारा।

प्रभु ने मन में तुरत  विचारा।।

सीता पिय  का मन पहचाने।

मुँदरी    देनी   है यह जाने।।10।।

 

मुँदरी     देते    हैं    रघुवीरा ।  

हाथ  जोड़  बोला  मतिधीरा ।।

केवट , केवट  दोनों   भाई।

फिर  कैसे  लूँ   मैं उतराई।।11।।

 

प्रभु  आए  जब मेरे द्वारे।

मैंने  प्रभु तब पार उतारे।।

ले परिवार घाट जब आऊँ।

बदला नाथ तभी मैं  पाऊँ।।12।।

 -0-

2-कुण्डलिया

डॉ. उपमा शर्मा 

1


रीते जीवन में सभी
,रंग और सब राग।

आन बसो तुम जब हृदय, मन हो जाये फाग।

मन हो जाये फाग,प्रेम की रितु ये आई।

कलित कुंज में रास, मनोहर ज्यों सुखदाई।

मुदित हुआ मन मग्न,नेह में हर पल बीते।

हृदय तुम्हारा वास,रहे अब राग न रीते।

2

जाऊँ जब मैं ले विदा, होना नहीं उदास।

 उड़ जाते पंछी सदा, कब रहते वो पास।

कब रहते वो पास, गेह बाबुल का न्यारा।

छूटा मुझसे साथ, लगे पिय का घर प्यारा।

थामा पिय का हाथ, दुआयें सबकी पाऊँ।

मैया हो न उदास, विदा हो जब मैं जाऊँ।