पथ के साथी

Wednesday, August 31, 2022

1237

 1-प्रेम -ज्योति   (सॉनेट ) / प्रो.विनीत मोहन औदिच्य

 


चाल गज की चले मान से वो भरी

कर नदी पार वो धार से अति डरी

रूप की राशि से ये मुदित मन हुआ

गात कंपित हुआ भाल उसने छुआ।

 

नैन हैं मद भरे होठ भी अधखुले

केश बिखरे हुए  चाँदनी में धुले

लाल अधरों सखी लाज- सी खेलती

काम का तीव्रतम वार- सा झेलती ।

 

हाल बेहाल कर ज्वार जब- जब उठा

प्रेम का पत्र भी कामना ने लिखा 

तीव्र साँसें चलीं बढ़ गई धड़कनें

मैल मन का धुला मिट गई अड़चनें ।

 

 रात भर श्याम ने नृत्य जीभर किया 

प्रीति निष्काम की ज्योति से भर दिया।।

 -0-प्रो.विनीत मोहन औदिच्य,ग़ज़लकार एवं सॉनेटियर,सागर, मध्यप्रदेश 

--0-

2-दोहे- रश्मि विभा त्रिपाठी 

1

1
तुमसे ही है स्वर मिला
, अधरों को संगीत।

कभी न गाते मैं थकूँतुमको हे मनमीत।।

2

मधुर मिलन को हम प्रिये, क्या होंगे मजबूर।

तन- मन एकाकार हैंकभी न होंगे दूर।।

3

मन से मन का जब बँधे, रिश्ता खूब प्रगाढ़।

लेता प्रेम उछाह यों, ज्यों नदिया में बाढ़।।

4

रूप तुम्हारा देखतीरजनी हो या भोर।

तुम आकरके बस गएइन आँखों की कोर।।

5

पीर जिया में जो उठे, हो पल में उद्धार।

प्रिये तुम्हारा प्रेम हीएकमात्र उपचार।।

6

साँसों में आनंद है, जीवन मेरा स्वर्ग।

मन के पन्ने पे रचे, तुमने सुख के सर्ग।।

7

जग का मेला घूमती, पकड़े तेरा हाथ।

हर वैभव से है मुझे, प्यारा तेरा साथ।।

9

मोल नहीं कुछ माँगता, तेरा भाव समर्थ।

मेरे जीवन को दिया, तूने सुन्दर अर्थ।।

10

मन- मरुथल उमड़ी घटा, झरी नेह की बूँद।

आलिंगन में रोज ही, भीगूँ आँखें मूँद।।

11

फूल दुआ के साथ ले, तुम आए हो पास।

मुझको होता ही नहीं, अब दुख का अहसास।।

-0-

Monday, August 29, 2022

1236_बुद्धिजीवी


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

 

गुलामों की ज़िन्दगी जीने  वाले

अपमान को चुपचाप पीने वाले

 अवसर की पूँछ पकड़कर

बटोरकर सबके हिस्से का सम्मान

सजा रहे अपनी दुकान

माँग-माँगकर भीख

भर लेते अपनी झोली,

जिनकी नैतिकता को

लकवा मार गया

साफ़गोई स्वर्ग सिधार गई

बुद्धि को सुविधाएँ चर गईं

जेब नोटों से भर गई

आत्मा घुटकर मर गई;

जो अंधकार को बुलाते रहे

उजालों को कब्र में सुलाते रहे

सरेआम व्यवस्था को

पेड़ से लटकाकर

कोड़े लगाते रहे-

ऐसे लोग बुद्धिजीवी कहलाते रहे।

-0-रचनाकाल 20-2-82(किशोर प्रभात, अप्रैल 1984)

Wednesday, August 24, 2022

1235

 

































2-पर्वतों की तंद्रा- सॉनेट अनिमा दास

 

तरल तंद्रा बह गई थी,पर्वतों से.. सिक्त हुआ था वन

रुधिर झर गया था वक्ष से.. रिक्त हुआ था यह मन।

नदी हुई थी चंचला.. समुद्र से संगम की थी व्यग्रता

किंतु नैश्य द्वीप में सहस्र उष्ण कामनाओं की थी आर्द्रता।

 

स्वरित हो रही थी कदम्ब कुंज में कृष्ण वर्णा कादंबरी


ऊषा के पूर्व हो रहा था ध्वनित क्रंदन, थी सुप्त विभावरी ।

मंथर था समीरण...मुक्त हो चुका था धरणी का केश

किंतु अब भी मौन देह में था ग्लानि का अपूर्ण क्लेश।

 

मृदु भाव में तीक्ष्ण पीड़ा का चुम्बन.. अतीत से कहा,

"स्मृति एक नहीं..अनेक हैं। कैसे कहूँ क्या -क्या है सहा!"

निरुत्तर अतीत हुआ अदृश्य.. वर्तमान के अंतर्जाल में

अंतरिक्षीय ध्वनि में हुआ विलीन शेष हुआ काल में।

 

 

तरल तंद्रा बह गई थी पर्वतों से... रक्तिम ऊषा थी आई

मालविका की काया शिशिर बूँद लिए मंद- मंद लहराई।

-0-अनिमा दास हिंदी सॉनेटियर,कटक, ओड़िशा


Friday, August 19, 2022

1234- बंसी भाग भरी

  शशि पाधा


कन्हैया तोरी बंसी भाग भरी

निसिदिन तेरे संग जिये वो

जब से अधर धरी ।

वृन्दावन की कुंज गलिन में
गोपिन रास रचाई
सात सुरों में गूँजे बंसी
झूमें कृष्ण कन्हाई

दूर खड़ी यशोदा मैया
नयनन नेह झरी 

छू के बंसी राधे बोली-
तू किसना अति प्यारी
श्वास- श्वास में तेरो बसते
मैं तुझसे ही हारी

किस डोरी से बाँधे तूने
पूछत पहर- घरी

राधे- राधे गाए बंसी
कान्हा हिय हरषाय
मेरे मन की बूझी तूने
पुनि पुनि गीत सुनाय

तेरे सुर की राग -रागिनी
बाँधे प्रीत -लड़ी
कन्हैया तोरी बंसी भाग भरी ।
-0-
[ चित्र; गूगल से साभार]


Sunday, August 14, 2022

तिरंगा प्यारा

डॉ. सुरंगमा यादव


तिरंगा प्यारा है
स्वाभिमान हमारा
इसकी खातिर मिट जाएँ
सौभाग्य हमारा है
सरहद पर लहराता है
शत्रु सदा घबराता है
वीर जवानों के तन-मन का



भूषण प्यारा है
हर घर ये लहराएगा
कोटि कंठ जय गाएगा
इसके रंग में रँगा हुआ
भूमण्डल सारा है
प्रेम-सुधा बरसाता है
सबको गले लगाता है
एक सूत्र में हमको बाँधे
जन-गण दुलारा है


Saturday, August 13, 2022

1214

 ये उदासी के बादल छँटते क्यों नहीं

अंजू खरबंदा 

  


रात भर ठीक से सो नहीं पा रही आजकल

घर के छोटे- मोटे काम निबटा 

सुबह से लेटी हूँ शिथिल तन मन से

बाहर सब्जी वाले की आवाज़ पड़ रही है कानों में

सोचती हूँ-

ठूँ जाऊँ ताजी सब्जियाँ खरीद लाऊँ

पति मुझे अक्सर कहते हैं गाय

जो हरी भरी ताजी सब्जियाँ देखते ही खिंची चली जाती है

ये बात मैं सभी को बताती हूँ खूब हँस- हँसकर

पर आज ये बात याद कर

एक हल्की सी मुस्कुराहट भी नहीं आई चेहरे पर! 

आखिर 

ये उदासी के बादल छँटते क्यों नहीं!

कुछ देर बाद गली से आती आवाजें बदलने लगती हैं

नारियल पानी....फल....!

सोचती हूँ उठूँ जाऊँ

कुछ फल ही खरीद लाऊँ

डॉक्टर भी कहते है रोज खाने चाहिए

किसी न किसी रंग के फल

पर लगता है जान ही नहीं शरीर में

ठूँ और जाऊँ बाहर

आखिर

ये उदासी के बादल छँटते क्यों नहीं !

बीच -बीच में आवाजों का शोर रंग बदलता है

कबाड़ी वालाssss

जिप ठीक करवा लोssss

चाकू छुरी तेज करवा लोssss

कुकर रिपेयर करवा लोssss

लेटे- लेटे याद आते है कितने ही काम

पर निर्जीव-सी पड़ी रहती हूँ पलंग पर

बस यही सोचती

आखिर

ये उदासी के बादल छँटते क्यों नहीं!

शाम गहराने लगी है

छत की ओर तकती आँखें दुखने लगी है

सोचती हूँ गुलाब जल डाल लूँ आँखों में

शायद कुछ राहत मिले

हाथ से टटोलकर

पास रखी टेबल से उठाती हूँ गुलाब जल

ड्रापर से बूँद- बूँद कर निकलती है ठंडक 

मूँद लेती हूँ आँखें

चलो कुछ पल तो चैन मिलेगा

आँखों को भी और दिमाग़ को भी

सुकून की चाहत में 

आँखें बंद करते ही

सोचने लगती हूँ फिर वही

ये उदासी के बादल छँटते क्यों नहीं आखिर! 

-0-

Tuesday, August 9, 2022

1213-मृत्यु - कलिका

 अनिमा दास

1-मृत्यु कलिका-सॉनेट -11

  

तुम्हारी प्रतीक्षा में समस्त विविक्षाएँ, त्याग दि श्वास


तुम्हारे स्वागत में सुशोभित किया निर्जीव शरीर
 

यात्रापथ भी सुमनित होगा,शून्य होगा स्व कुटीर

प्रबल वेग में पवन,उड़ा ले जाएगा शेष कपास।

 

तुम्हारी प्रतीक्षा में, क्यों मूक- सी रहूँ  मैं भू-लग्ना?

तुम नर्तकी- सी मोहित कर मेरी समस्त भाव भंगिमा

करो अचल-स्थिर-वेगहीन— ऐ! मेरी सौंदर्य प्रतिमा

मेरी कोठरी की कृष्णछाया रहेगी अब स्मृतिमग्ना।

 

न करो अविश्वास मेरा; मैं अब यात्रा हेतु हूँ प्रस्तुत

हाँ देखो! मंदराचल पर है अद्भुत प्रकाश की छवि 

निश्चिह्न हो जाएगा एक काव्य-मेघ; एक प्रिय कवि

तुम्हारी प्रतीक्षा में..प्रकृतिमयी धरा भी है परिप्लुत।

 

ऐ! मेरी मृत्यु कलिका..प्रस्फुटित ईशान्य की मल्लिका

तुम्हारी सुगंध से सुगंधित हो रही मेरी तनु तंत्रिका ।।

 2

मृत्यु कलिका -12 सॉनेट 

 

प्रातः विभास में तुम्हारा मुख्यमंडल ; दिवस भर की प्रतीक्षा

शून्य शिविर में ढहते आश्वासन की तीर...मन का पीर

बढ़ जाता है क्षण क्षण में हृदय -कोटर का स्वर असह्य अधीर

स्थूल शरीर में निशा गरजती..निद्रा में जाती एक अन्वीक्षा।

 

वही अन्वीक्षा..कालरात्र में.. कालकोष्ठ में .. युगों से मुक्ति की

तुम एक विद्युत्- सी चमकती हो, हो जाती अदृश्य कोलाहल में

शुष्क शाखाओं के तुहिन कणों में.. होती हो विलीन कोंपल में

तुम रुद्ध करती छल का कपाट,मैं सुनती ध्वनि अभियुक्ति की।

 

समस्त सरोवर हैं शोभित शतदल से.. है स्वर्गपथ आलोकित

भ्रम इस मिथ्या जगत का,हो रहा आकाश में चूर्ण-विचूर्ण

स्वल्प समय का यह उपन्यास दे रहा तुम्हे उपसंहार भी पूर्ण

आओ! इस अतृप्त आत्मकल्प को करो स्पर्श..करो मुदित।

 

 

हो पुष्पित तुम,ऐ मृत्यु कलिका!क्योंकि हूँ मैं अनंत अभिशप्ता

क्या अमर्त्य-अमृत में नहीं होगी लीन,मेरी शेष कथा-परितप्ता?

-0- कटक, ओड़िशा

Wednesday, August 3, 2022

1212-दोहे

 दोहे

आशा पाण्डेय 


1
जीवन पल-पल बीतता
, बुझी न मन की प्यास,

हर पल नश्तर चुभ रहे, पर आँखों में आस।

2

जीवन सारा होम कर, पाई केवल राख,

पाई-पाई दे दिया, फिर भी बिगड़ी साख।

3

अक्षर-अक्षर ब्रह्म है, बोलो सोच विचार

कभी तरल करते हृदय, करते कभी प्रहार।

4

बया बनाती घोंसला, डाली- बेर, बबूल

घर बुनने में है मगन, काँटे जाती भूल।

5

शब्द-शब्द में विष भरा, उतरे दिल के पार

जीवन भर आहत करे, एक बार का वार।

6

थोड़ी-सी हो वेदना, थोड़ा-सा अनुराग

पर-दुःख से दिल हो दुखी, तब सोहे वैराग।

7

पीकर अश्रु हँसे नयन, मजबूरी की बात

वरना किसकी चाह है, रोते बीते रात।

8

दुनियादारी सीख ली, पाकर इतने घात

कोमल मन पीछे छुपा, अब तौलूं हर बात।

9

सींचा जिसको प्रेम से, माली ने दिन रात

वही चुभाता है उसे, काँटों की सौगात।

10

बादल घिरते देख कर, होता खुशी किसान

बरखा में कैसे हँसे, जिनके नहीं मकान।

12

किया नयापन शहर का, सारे पेड़ कटाय

घर से है बेघर हुआ, उड़ि-उड़ि पंछी जाय।

13

कल-कल की ये सुखद धुन, संगम तट की शाम

भारद्वाज ऋषि से मिले, यहीं कहीं थे राम।

14

दिवस ठिठुरने अब लगा, संझा हुई उदास

जला आग बतिया रहे, घुलने लगी मिठास।

15

दिन छोटा होने लगा, रातें लम्बी होंय

तनकर रहना है कठिन, ठिठुरे हैं सब कोय।

16

हर रिश्ते नाते यहाँ, करते आज हिसाब

गणना में कमजोर मैं, कैसे होऊँ पास।

17

जो अपनों से दूर हैं, वह जाने हैं मोल

अपनों–सा कोई नहीं, चाहे कड़ुवे बोल।

18

कुछ रिश्तों की नोंक में, होता तीखापन

जीवन भर चुभते रहे, मिले ना अपनापन।

19

घर की दीवारें ढहीं, दरक उठा दालान

आँगन में चूल्हे बँटे, सिसक रहा खलिहान।

20

लिख-लिख कागज फाड़ते, लिख ना पाई बात

कैसे अक्षर बोलते, खा दिल आघात।

21

जगा न पाई मैं कभी, अंतर में विश्वास

भले ओते तुम रहे, अधरों पर मृदु हास।

22

दिया जलाती लेखनी, अक्षर-अक्षर तेल

बाती बन लेखक जले, नहीं सरल यह खेल।

23

यह संसार जगा रहे, लेखक करे प्रयास

सो ना संवेदना, मानवता की आस।

24

जिस पथ अँधियारा घिरा, नहीं रोशनी शेष

वहीं दीप बन जल उठे, लेखनी यह अशेष।

25

पानी सूखा आँख का, डूब गया संसार

हार गई संवेदना, घातक है यह मार।

26

मौन बड़ा मारक हुआ, शब्द हुए बेकार

मोटी पलकें हैं झुकी, करतीं कड़ा प्रहार।

27

साँझ हुई पक्षी उड़े, अपने घर की ओर

बच्चे रस्ता देखते, बंधी हुई है डोर।

28

शांति दिलाती झोपड़ी, महल दुखों की खान

प्रेम गरीबी को मिला, धन को झूठी शान।

29

टहनी से टूटा हुआ, पत्ता पड़ा उदास

बस इतने दिन ही लिखा, अपना यहाँ निवास।

30

पग-पग ठोकर मिल रहा और घाट-प्रतिघात

बीच इसी के खोज तू, प्रेम पगी दो बात।

 

-0-आशा पाण्डेय, अमरावती, महाराष्ट्र