पथ के साथी

Showing posts with label योगराज प्रभाकर. Show all posts
Showing posts with label योगराज प्रभाकर. Show all posts

Friday, April 10, 2020

970-लघुकथा का सृजन



 रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ से परिचर्चा
परिचर्चाकार ( योगराज प्रभाकर-सम्पादक -लघुकथा कलश)
1.आप अपनी लघुकथा के लिए कथानक का चुनाव कैसे करते हैं?

·      सायास किसी कथन का चयन नहीं करता। कोई घटना, प्रसंग मन में कौंध छोड़ जाए, बेचैनी भर दे, तो वह कथानक बन जाता है। ‘आज लघुकथा लिखनी है’ ऐसा निश्चय करके कभी कुछ नहीं लिखा।
2.क्या कभी कोई कथानक किसी विचार अथवा सूक्ति पढ़ते हुए भी सूझा है?
·      विचार / सूक्ति को पढ़ते हुए कभी कोई कथानक नहीं सूझा।
3.कथानक सूझने के बाद ज़ाहिर है कि लघुकथा की एक अपुष्ट- सी रूपरेखा स्वत: ही बन जाती है। आप क्या उसे बाकायदा कहीं लिख लेते हैं या केवल याद ही रखते हैं?
·      लिखने का प्रयास ज़रूर किया , लेकिन वह  किसी काम नहीं आया । आज तक इस तरह की लिखी सांकेतिक पंक्तियाँ ज्यों की त्यों आराम कर रही हैं।
4.क्या कभी ऐसा भी हुआ कि कथानक सूझते ही लघुकथा का अंत सबसे पहले दिमाग में आया हो और आपने उसी के इर्द-गिर्द लघुकथा बुनी हो?
·      कथानक सूझते ही अन्त सबसे पहले दिमाग़ में नहीं आया। कथा के स्वाभाविक विकास से जो सहज अन्त बना, वही रखा गया। गढ़े गए अन्त  मुझे प्राय: नहीं जमे।
5.कथानक चुनने के बाद आप यह निर्णय कैसे करते हैं कि उस पर लघुकथा किस शैली में लिखनी है?
·      कथ्य के विकास की जैसी माँग होती है, भाषा और शैली उसी के अनुरूप अपनानी पड़ती है। बात को बेहतर ढंग से कहना ही  शैली है। कथ्य के अनुरूप  शैली का होना ज़रूरी है। कमज़ोर भाषा और शैली  बहुत अच्छे विषय को भी लचर बना सकती हैं।
6.लघुकथा का पहला ड्राफ्ट लिखकर आप कब तक यूँ ही छोड़ देते हैं? आप सामान्यत: लघुकथा के कितने ड्राफ्ट लिखते हैं?
·      पहला ड्राफ़्ट छह-सात दिन तक तो पड़ा ही रहता है। कई बार महीनों हो जाते हैं। जब तक सन्तुष्टि नहीं मिलती, तब तक ड्राफ़्ट को आराम करने देता हूँ। भेजने की हड़बड़ी में  ड्राफ़्ट के आराम में ख़लल नहीं डालता।
7.क्या कभी ऐसा भी हुआ कि कथानक सूझते ही तत्क्षण उस पर लघुकथा लिखी गई हो?
·      बहुत कम बार ऐसा हुआ है कि तत्क्षण लघुकथा लिखी गई हो। फिर भी मैंने उसको तुरन्त प्रकाशन हेतु नहीं भेजा। बाद में भाषा आदि का कुछ न कुछ बदलाव ज़रूर हो गया।
8.लघुकथा लिखते हुए क्या आप शब्द सीमा भी ध्यान में रखते हैं?
·      मैं कभी शब्द सीमा का ध्यान नहीं रखता। यह तो लघुकथा के कथ्य पर निर्भर है कि  वह कितना आकार लेता है।  रचना की पूर्णता उसके सम्प्रेषण में निहित है , न कि आकार  में। लम्बी और बेदम लघुकथाएँ बहुत मिल जाएँगी  तथा अत्यन्त लघु आकार की  अधूरी  और चुटकुलानुमा रचनाएँ भी बहुत सामने आई हैं।
9.लघुकथा लिखते हुए आप किस पक्ष पर अधिक ध्यान देते हैंशीर्षक पर, प्रारंभ पर, मध्य पर या फिर अंत पर?
·      मेरा ध्यान अच्छी प्रस्तुति पर रहता है।  शीर्षक से लेकर अन्त तक सभी का समान महत्त्व है। कमज़ोर शीर्षक अच्छी लघुकथा  का मुकुट नहीं बन सकता। लचर आरम्भ रोचकता को नष्ट करता है। कमज़ोर मध्य  को कमज़ोर रीढ़ कहा जाए ,तो उपयुक्त होगा। कमज़ोर अन्त लघुकथा को ले डूबता है।
10.लघुकथा लिखते समय ऐसी कौन सी ऐसी बाते हैं ,जिनसे आप सचेत रूप से बचकर रहते हैं?
·      सचेत  रूप से बचकर लिखना तो नहीं कहूँगा। फिर भी स्वभाववश एक बात मेरे मन में यह रहती है कि लघुकथा किसी वर्ग को ठेस पहुँचाने वाली न हो। कमज़ोर का मज़ाक उड़ाने वाली न हो। सद्भाव को हानि पहुँचाने वाली न हो। सर्वोच्च तो मानव है, उसकी मर्यादा को सुदृढ़ करने वाली हो।
11.एक गम्भीर लघुकथाकार इस बात से भली-भाँति परिचित होता है कि लघुकथा में उसे ‘क्या’ कहना है, ‘क्यों’ कहना है और ‘कैसे’ कहना है, निस्संदेह आप भी इन बातों का ध्यान रखते होगे। इसके इलावा आप ‘कहाँ’ कहना है (अर्थात किस समूह, गोष्ठी, पत्रिका, संकलन अथवा संग्रह के लिए लिख रहे हैं) को भी ध्यान में रखकर लिखते हैं?  
·        किसी समूह, गोष्ठी, पत्रिका, संकलन अथवा संग्रह  को ध्यान में रखकर नहीं लिखता।  इतना ज़रूर है कि ‘क्या’ लिखना है ,क्यों’ लिखना है और ‘कैसे’ लिखना है, इसे ध्यान में रखता हूँ।
12.लघुकथा में आंचलिक भाषा का प्रयोग करते समय आप किन बातों का ध्यान रखते हैं?
·      आंचलिक भाषा  का प्रयोग संवाद और उसके पात्र की मन: स्थिति के अनुकूल हो  और कथा में अपरिहार्य हो,इसका ज़रूर ध्यान रखता हूँ। आंचलिक शब्दों की अपनी त्वरा और तीव्रता होती है, जिसका स्थान  दूसरा ( भले ही कितना साहित्यिक हो) शब्द नहीं ले सकता।
13.लघुकथा लिखते हुए क्या आप पात्रों के नामकरण पर भी ध्यान देते हैं? लघुकथा में पात्रों के नाम का क्या महत्व मानते हैं?
·      नामकरण पर ध्यान देता हूँ, लेकिन इतना भी नहीं कि पूरी कथा ‘नाम’ के इर्द-गिर्द  ही घूमती रहे।
14.क्या लघुकथा लिखकर आप अपनी मित्र-मंडली में उस पर चर्चा भी करते हैं? क्या उस चर्चा से कुछ लाभ भी होता है?
·      परिवारीजन या मित्र जो भी उस समय निकट हो ,उसको ज़रूर सुनाता हूँ। भाई सुकेश साहनी जी से सम्पर्क होने पर , सभी लघुकथाएँ उनको ज़रूर सुनाईं। सुझाए गए सुधार भी किए ।
15.क्या कभी ऐसा भी हुआ कि किसी लघुकथा को सम्पूर्ण करते हुए आपको महीनों लग गए हों? इस सम्बन्ध में कोई उदाहरण दे सकें तो बहुत अच्छा होगा।
·      ‘ऊँचाई’ लघुकथा के साथ ऐसा ही हुआ। उसे अन्तिम रूप देने में कई महीने लग गए ।
16.आप अपनी लघुकथा का अंत किस प्रकार का पसंद करते हैं? सुझावात्मक, उपदेशात्मक या निदानात्मक
·      सहज स्फूर्त्त  निदानात्मक
17.आप किस वर्ग को ध्यान में रखकर लघुकथा लिखते हैं, यानी आपका ‘टारगेट ऑडियंस’ कौन होता है?
·      कोई भी वर्ग  हो सकता है। वर्ग विशेष को ध्यान में रखकर नहीं लिखा।
18.अपनी लघुकथा पर पाठकों और समीक्षकों की राय को आप कैसे लेते हैं? क्या उनके सुझाव पर आप अपनी रचना में बदलाव भी कर देते हैं?
·      समीक्षकों की राय सिर माथे। बदलाव करने का कभी अवसर नहीं आया ।
19.क्या कभी ऐसा भी हुआ कि आपने कोई लघुकथा लिखी, लेकिन बाद में पता चला कि वह किसी अन्य लघुकथा से मिलती-जुलती है। ऐसी स्थिति में आप क्या करते हैं?
·      आश्चर्यजनक रूप से ऐसा हुआ है। मैंने जो कथानक सोचा था, ठीक वैसी ही रचना मुझे सुनने का अवसर मिला। उस लघुकथा को पूरा करने का विचार छोड़ दिया ।
20.क्या कभी आपने अपनी लिखी लघुकथा को खुद भी निरस्त किया है? यदि हाँ, तो इसका क्या कारण था?  
·      बहुत -सी लघुकथाएँ निरस्त करनी पड़ीं। कहीं भेजी जातीं, तो छप सकती थीं;  लेकिन मन ने  स्वीकार नहीं किया। जब मैं ही सन्तुष्ट नहीं, फिर उन लघुकथाओं को पाठकों के बीच में लाना  श्रेयस्कर नहीं।
-0- सम्पर्क: 13 मेपल सीरप स्ट्रीट, ब्रम्पटन, एल 8 पी 4 सी 5 ( कैनेडा)
·      21-03-2019 भारतीय समय 3-09 बजे प्रात: ( ब्रम्पटन-5-39 अपराह्न)