पत्र
प्रभु जोशी
4, संवाद नगर,
नवलखा, कै़दी बाग़ के पास,
इन्दौर (म.प्र.)–452 001
मोबाइल : 94253–46356
E-mail- prabhu.joshi@gmail.com
प्रिय महोदय,
आप सब अपने–अपने टेलिविजनों पर रोज देख रहे होंगे, कि इन दिनों एक विज्ञापन में देशभक्ति से भरे आदमी का गुस्सा उफनकर बाहर आता है, जिसमें वह कहता है, 'देश बदल रहा है, भेष कब बदलोगे ?' उसका वश नहीं चलता, वरना भेष नहीं बदलने वाले को वह खुद ही ऐसे पीटता जैसे कि वह क्रिकेट के मैदान में अपने बल्ले से गेंद को पीटता है। लेकिन, वह भेष न बदलने वाले को कार पार्किंग के चौकीदार से पिटता हुआ, बताता है।
एक होर्डिंग शहर में कई दिनों तक दिखता रहा, जिसमें वह इस शहर के नामुरादों को ललकारता रहा कि 'आखिर इन्दौर कब तक चाय–पोहे पर अटका रहेगा ?' मतलब यह कि अब मैक्डोनाल्ड तो आ ही चुका है न!
मित्रों! अब आप बहुत जल्दी ही टेलिविजन के पर्दे और अखबारों के पन्नों पर देश को विकास के रास्ते पर ले जाने वाले आदमी के गुस्से से उफनती एक नई धमकी पंच लाइन की तर्ज पर देखने–पढ़ने के लिए तैयार रहिये वह होगी – 'देश की आशायें बदल रही है, (नामुरादों) भाषायें कब बदलोगे ?'
कहने की जरूरत नहीं कि हम भारतीय नामुरादों को भाषायें बदलने के एक खामोश षड्यंत्र में शामिल कर लिया गया है। और विडम्बना यह कि दुर्भाग्यवश हम इसके लिए धीरे–धीरे तैयार भी होने लगे हैं।
अंग्रेजों की बौद्धिक चालाकियों का बखान करते हुए एक लेखक ने लिखा था – ''अंग्रेज़ों की विशेषता ही यही होती है कि वे आपको बहुत अच्छी तरह से यह बात गले उतार सकते हैं कि आपके हित में आप स्वयं का मरना बहुत ज़रूरी है। और, वे धीरे–धीरे आपको मौत की तरफ ढकेल देते हैं।'' ठीक इसी युक्ति से हिंदी के अखबारों के चिकने और चमकीले पन्नों पर नई नस्ल के चिंतक, यही बता रहे हैं कि हिंदी का मरना, हिन्दुस्तान के हित में बहुत ज़रूरी हो गया है। यह काम देश–सेवा समझकर जितना ज़ल्दी हो सके करो, वर्ना, तुम्हारा देश सामाजिक–आर्थिक स्तर पर ऊपर उठ ही नहीं पाएगा। परिणाम स्वरूप, वे हिंदी को बिदा कर देश को ऊपर उठाने के काम में जी–जान से जुट गए हैं।
ये हिंदी की हत्या की अचूक युक्तियाँ भी बताते हैं, जिससे भाषा का बिना किसी हल्ला–गुल्ला किए 'बाआसानी संहार' किया जा सकता है।
वे कहते हैं कि हिंदी का हमेशा–हमेशा के लिए ख़ात्मा करने के लिए आप अपनाइये। 'प्रॉसेस आॅफ कॉण्ट्रा–ग्रेज्युअलिज़म'। अर्थात्, बाहर पता ही नहीं चले कि भाषा को 'सायास' बदला जा रहा है। बल्कि, 'बोलने वालों' को लगे कि यह तो एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है। हिंदी को हिंग्लिश होना ही है। और हिंदी के कुछ अख़बारों की भाषा में, यह परिवर्तन उसी प्रक्रिया के तहत इरादतन और शरारतन किया जा रहा है। बहरहाल, वे कहते हैं कि इसका एक ही तरीक़ा है कि आप अपने अख़बार की भाषा में, हिंदी के मूल दैनंदिन शब्दों को हटाकर, उनकी जगह अंग्रेज़ी के उन शब्दों को छापना शुरू कर दो, जो बोलचाल की भाषा में (शेयर्ड–वकैब्युलरि) की श्रेणी में आते हैं। जैसे कि रेल, पोस्ट कार्ड, मोटर, टेलिविजन आदि–आदि। यानि कुल मिलाकर जिस भी हिन्दी शब्द का आप अंग्रेजी जानते हैं, उस हिन्दी के शब्द को हटाकर उसकी जगह अंग्रेजी का इस्तेमाल करना शुरू कर दीजिये। अंतत: धीरे–धीरे उनकी तादाद इतनी बढ़ा दीजिए कि मूल–भाषा के केवल कारक भर रह जायें। क्योंकि कुल मिलाकर, रोज़मर्रा के बोलचाल में बस हज़ार–डेढ़ हज़ार शब्द ही तो होते है।
भाषा को परिवर्तित करने का यह चरण, 'प्रोसेस ऑव डिसलोकेशन' कहा जाता है। यानी की हिंदी के रोज़मर्रा के मूल शब्दों को धीरे–धीरे बोलचाल के जीवन से उखाड़ते जाने का काम।
ऐसा करने से इसके बाद भाषा के भीतर धीरे–धीरे 'स्नोबॉल थियरी' काम करना शुरू कर देगी – अर्थात् बर्फ़ के दो गोलों को एक दूसरे के निकट रख दीजिए, कुछ देर बाद वे एक दूसरे से घुलमिलकर इतने जुड़ जाएँगे कि उनको एक दूसरे से अलग करना संभव नहीं हो सकेगा। यह 'थियरी' (सिद्धान्तकी) भाषा में सफलता के साथ काम करेगी और अंग्रेज़ी के शब्द, हिंदी से इस क़दर जुड़ जायेंगे कि उनको अलग करना मुश्किल होगा।
इसके पश्चात् शब्दों के बजाय पूरे के पूरे अंग्रेज़ी के वाक्यांश छापना शुरू कर दीजिए। अर्थात् 'इनक्रीज द चंक ऑफ इंग्लिश फ़्रेज़ेज़'। मसलन 'आऊट ऑॅफ रीच/बियाण्ड डाउट/नन अदर देन/ आदि आदि। कुछ समय के बाद लोग हिंदी के उन शब्दों को बोलना ही भूल जायेंगे। उदाहरण के लिए हिंदी में गिनती स्कूल में
बंद किये जाने से हुआ यह है कि यदि आप बच्चे को कहें कि अड़सठ रूपये दे दो, तो वह अड़सठ का अर्थ ही नहीं समझ पायेगा, जब तक कि उसे अंग्रेज़ी में 'सिक्सटी एट' नहीं कहा जायेगा। इस रणनीति के तहत बनते भाषा रूप का उदाहरण एक स्थानीय अख़बार से उठाकर दे रहा हूँ।
'मार्निंग अवर्स के ट्रेफिक को देखते हुए, डिस्ट्रिक्ट एडमिनिस्ट्रेशन ने जो ट्रेफिक रूल्स अपने ढंग से इम्प्लीमेंट करने के लिए जो जेनुइन एफर्ट्स किये हैं, वो रोड को प्रोन टू एक्सीडेंट बना रहे है; क्योंकि, सारे व्हीकल्स लेफ्ट टर्न लेकर यूनिवर्सिटी की रोड को ब्लॉक कर देते हैं। इन प्रॉब्लम का इमीडिएट सोल्यूशन मस्ट है।'
इस तरह की भाषा को लगातार पाँच–दस वर्ष तक प्रिंट–माध्यम से पढ़ते रहने के बाद जो नई पीढ़ी इस कि़स्म के अख़बार पठन–पाठन के कारण बनेगी, उसकी यह स्थिति होगी कि उसे कहा जाय कि वह हिंदी में बोले तो वह गूंगा हो जायेगा। उनकी इस युक्ति को वे कहते हैं 'इल्यूज़न ऑफ स्मूथ ट्रांजिशन'। अर्थात् हिंदी की जगह अंग्रेज़ी को निर्विघ्न ढंग से स्थापित करने का सफल छद्म।
हिंदी को इसी तरीक़े से हिंदी के अखबारों में 'हिंग्लिश' बनाया जा रहा है। समझ के अभाव में अधिकतर हिंदी भाषी लोग और विद्वान भी लोग इस सारे सुनियोजित एजेण्डे को भाषा के 'परिवर्तन की ऐतिहासिक प्रक्रिया' ही मानने लगे हैं और हिंदी में इस तरह की व्याख्या किए जाने का काम होने लगा है। गाहे–ब–गाहे लोग बाक़ायदा अपनी दर्पस्फीत मुद्रा में वे बताते हैं जैसे कि वे अपनी एक गहरी सार्वभौम–प्रज्ञा के सहारे ही वे इस सचाई को सामने रख रहे हों कि हिंदी को हिंग्लिश बनना अनिवार्य है। उनको तो पहले से ही इसका इल्हाम हो चुका है और ये तो होना ही है।
एक भली चंगी भाषा से उसके रोज़मर्रा के सांस लेते शब्दों को हटाने और उसके व्याकरण को छीन कर उसे 'बोली' में बदल दिये जाने की 'क्रियोल' कहते हैं। अर्थात् हिंदी का हिंग्लिश बनाना एक तरह का उसका 'क्रियोलीकरण' है। और 'कांट्रा–ग्रेजुअलिज्म' के हथकंडों से बाद में उसे 'डि–क्रियोल' किया जायेगा। अर्थात् विस्थापित करने वाली भाषा को मूल भाषा की जगह आरोपित करना।
भाषा की हत्या के एक योजनाकार ने अगले और अंतिम चरण को कहा है कि 'फायनल असाल्ट आॅन हिंदी'। बनाम हिंदी को 'नागरी–लिपि' के बजाय 'रोमन–लिपि' में छापने की शुरूआत करना। अर्थात् हिंदी पर अंतिम प्राणघातक प्रहार। बस हिंदी की हो गई अन्त्येष्टि। चूँकि हिंदी को रोमन में लिख पढ़कर बड़ी होने वाली पीढ़ी में वह नितांत अपठनीय हो जायेगी। हिंग्लिश को 'रोमन–लिपि' में छाप देने का श्रीगणेश करना। यही कहा जाता रहा है, भाषा को पहले 'क्रियोल' बनाने के बाद, 'डि–क्रियोल' करना। अब यह काम भारत में होने जा रहा है, जिसकी शुरूआत कोकणी को रोमनलिपि में लिखे जाने के निर्णय से शुरू हो चुका है। इसी युक्ति से गुयाना में, जहाँ 43 प्रतिशत लोग हिंदी बोलते थे 'डि–क्रियोल' कर दिया गया और अब वहाँ देवनागरी की जगह रोमन–लिपि को चला दिया गया है।
यह आकस्मिक नहीं है कि इन दिनों तो हिंदी में अंग्रेज़ी की अपराजेयता का बिगुल बजाते बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के दलालों ने, विदेशी पूँजी को पचा कर मोटे होते जा रहे हिंदी के लगभग सभी अख़बारों को यह स्वीकारने के लिए राजी कर लिया है कि इसकी 'नागरी–लिपि' को बदल कर, 'रोमन' करने का अभियान छेड़ दीजिए और वे अब तन–मन और धन के साथ इस तरफ कूच कर रहे हैं। उन्होंने इस अभियान को अपना प्राथमिक एजेण्डा बना लिया है। क्योंकि बहुराष्ट्रीय निगमों की महाविजय इस सायबर युग में 'रोमन–लिपि' की पीठ पर सवार होकर ही बहुत ज़ल्दी संभव हो सकती है। यह विजय अश्वों नहीं, चूहों की पीठ पर चढ़कर की जानी है। जी हाँ, कम्प्यूटर माऊस की पीठ पर चढ़कर। यही काम त्रिनिदाद में इसी षड्यंत्र के ज़रिए किया गया है।
बहरहाल, किसी भी देश की संस्कृति के तीन बाहरी तौर पर पहचाने जाने वाले मोटे–मोटे आधार होते हैं भाषा, भूषा और भोजन। इन तीनों की अराजक होकर तोड़ते ही हम नए सांस्कृतिक उपनिवेश बन जाएंगे। यह प्रक्रिया शुरू कर दी गई है। जिसमें भारतीय भाषा, भूषा और भोजन को निबटाया जा रहा है। निस्संदेह इसके चलते बहुत जल्द हमारे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर फिर एक नया विज्ञापन आयेगा – ''देश का ढंग बदल रहा है, कमबख्तों रंग कब बदलोगे ?''
इसके बाद भारतीय नागरिकों की ''कलर्ड कास्ट'' को कहा जायेगा अपनी आने वाली नस्ल को गोरा बनाने के लिए दौड़ो और अपनी नस्ल का रंग गोरा करने के लिए आज ही जीन बैंक से शुक्राणुओं की खरीदी के लिए अपना नाम लिखाओ। यह भूमण्डलीकरण की अंतिम सीढ़ी होगी।
क्या आप इस सीढ़ी तक पहुंचने के लिए तैयार हैं ? वक्त निकालकर इस विषय पर कुछ सोचिए...... और अगर अपने स्तर पर भी जितनी प्रखर असहमति लिखकर और मौखिक भी प्रकट की जा सकती है, प्रकट कीजिये ताकि आप अपनी भाषा के प्रति जरूरी ऋण अदा कर सकें। यह पत्र आप अपने मित्रों और इसके पक्ष में तमाम अखबारों को भी भेजें।
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(साभार)