रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
निर्जल घाटी के सीने पर
आखर लिख दिये प्यास के ।
जंगल में भी शीश उठाकर
खिल गए फूल पलाश के ।
निर्गन्ध कहकरके ठुकराया
मन की पीर नही जानी
छीनी किसने सारी खुशबू
बात न इतनी पहचानी
इसकी भी साथी थी खुशबू
दिन थे कभी मधुमास के ।
पाग आग की सिर पर बाँधे
कितना कुछ यह सहता है
तपता है चट्टानों में भी
कभी नहीं कुछ कहता है
सदियाँ बीती पर न बीते
अभागे दिन संन्यास के ।
यह योगी का बाना पहने
बस्ती में आता कैसे ?
कितना दिल में राग रचा है
सबको बतलाता कैसे ?
जल गए अंकुर आस के ।
इसकी पीड़ा एकाकी थी
सुनता क्या बहरा जंगल
इसके आँसू दिखते कैसे
मिलता कैसे इसको जल
न बुझी प्यास मिली जो इसको
न बीते दिन बनवास के ।
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[फोटो:गूगल से साभार]