पथ के साथी

Monday, June 20, 2011

खिल गए फूल पलाश के !



रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

निर्जल घाटी के सीने पर
आखर लिख दिये प्यास के ।
जंगल में भी शीश उठाकर
खिल गए फूल पलाश के ।


निर्गन्ध कहकरके ठुकराया
मन की पीर नही जानी 
छीनी किसने सारी खुशबू
बात न इतनी पहचानी
इसकी भी साथी थी खुशबू
दिन थे कभी मधुमास के ।
पाग आग की सिर पर बाँधे
कितना कुछ यह सहता है
तपता है चट्टानों में भी
कभी नहीं कुछ कहता है
सदियाँ बीती पर न बीते
अभागे दिन संन्यास के ।
यह योगी का बाना पहने
बस्ती में ता कैसे ?
कितना दिल में राग रचा है
 सबको बतलाता कैसे ?
धोखा इसने जग से खाया
जल गए   अंकुर आस के ।
इसकी पीड़ा एकाकी थी
सुनता क्या बहरा जंगल
इसके  आँसू दिखते कैसे
मिलता कैसे इसको जल
न बुझी प्यास मिली जो इसको
न बीते दिन  बनवास के ।
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[फोटो:गूगल से साभार]