पथ के साथी

Saturday, June 30, 2012

हाइकु मुक्तक


हाइकु मुक्तक-रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
1
यादों की गली /यदि भूलकर भी /तुम आ जाते ।
 इन्तज़ार में  / मोड़ पर खड़े थे / हमें पा जाते ॥
करें क्या हम /क़िस्मत  में लिखा जो / मिटता नहीं ।
कसक यही / दो पल को ही सही / तुम्हें पा जाते ॥
2
अपना तन । अपना मन सब  / तुमने जाना ।
इसके आगे / होती इक दुनिया /न पहचाना ॥
हँसता देख / किसी को पलभर /तुम तो रोए ।
उम्र बिता दी / स्वार्थ को  ही तुमने / जीवन माना ॥
-0-

Sunday, June 24, 2012

फिर से नन्हीं बच्ची बना दो मुझे माँ |


कमला निखुर्पा
मन में उमडी है यादों की घटा
फिर तेरे नेह की  आयी है याद माँ,
तेरे गोदी में मिला बचपन को जो सुकून,
नहीं नसीब वो वातानुकूलित कमरों में माँ |
जाने किस माटी से गढा था विधाता ने ,
चैन से जीते  तुझे देखा नहीं कभी माँ |
सुलाए मुझे  सुनाके मीठी लोरियाँ ,
कब से गीले बिछौने पे सोई रही माँ|  
दुपहरी की धूप में तन को जला के ,
चाँद की शीतलता आँचल में भर लाई माँ |
समेट समंदर को अपनी उनींदी आँखों में,
नित नेह की गंगा में नहलाए मुझे माँ |







रिश्तों के वन में भटका जीवन हिरन,
कस्तूरी बन फिर से महका दो मुझे माँ |
कुट्टी कर आयी हूँ खुशियों से अपनी ,
आँचल में अपने  छुपा लो  मुझे माँ |
दिला  दे मुझे मेरी गुडिया और गुड्डा
फिर से नन्हीं बच्ची बना दो मुझे माँ |

Monday, June 4, 2012

बाबुल तुम बगिया के तरुवर


बाबुल तुम बगिया के तरुवर
गोपाल सिंह नेपाली
गोपाल सिंह नेपाली
[ 12 दिसम्बर 2010,पटना के माध्यमिक शिक्षा मण्डल के हॉल में स्वर्गीय गोपाल सिंह नेपाली जी की भतीजी  सविता सिंह नेपाली ने जब यह गीत गाया तो गहन सन्नाटा खिंच गया ।सभी की आँखें तरल थीं । नेपाली जी की जन्मशती पर यही गीत राष्ट्रपति भवन में भी सविता सिंह नेपाली ने गाया ।आह्वान -21 से साभार]
बाबुल तुम बगिया के तरुवर, हम तरुवर की चिड़ियाँ रे  ।
दाना चुगते उड़ जाएँ हम, पिया मिलन की घड़ियाँ रे  ।
उड़ जाएँ तो लौट न आएँ , ज्यों मोती की लडियाँ  रे
सविता सिंह नेपाली : फोटो-हिमांशु
बाबुल तुम बगिया के तरुवर …….

आँखों से आँसू निकले तो पीछे तके नहीं मुड़के
घर की कन्या बन का पंछी, फिरे न डाली से उड़के
बाजी हारी हुई त्रिया की
जनम -जनम सौगात पिया की
बाबुल तुम गूँगे नैना, हम आँसू की फुलझड़ियाँ रे  ।
उड़ जाएँ तो लौट न आएँ ज्यों मोती की लड़ियाँ रे ।

हमको सुध न जनम के पहले
अपनी कहाँ अटारी थी
आँख खुली तो नभ के नीचे , हम थे, गोद तुम्हारी थी
ऐसा था वह रैन -बसेरा
जहाँ साँझ भी लगे सवेरा
बाबुल तुम गिरिराज हिमालय , हम झरनों की कड़ियाँ रे ।
उड़ जाएँ तो लौट न आएँ , ज्यों मोती की लड़ियाँ  रे  

छितराए नौ लाख सितारे , तेरी नभ की छाया में
मंदिर -मूरत , तीरथ देखे , हमने तेरी काया में
दुःख में भी हमने सुख देखा
तुमने बस कन्या मुख देखा
बाबुल तुम कुलवंश कमल हो , हम कोमल पंखुड़ियाँ  रे  
उड़ जाएँ तो लौट न आएँ , ज्यों मोती की लड़ियाँ  रे  

बचपन के भोलेपन पर जब , छिटके रंग जवानी के
प्यास प्रीति की जागी तो हम , मीन बने बिन पानी के
जनम -जनम के प्यासे नैना
चाहे नहीं कुँवारे रहना
बाबुल ढूँढ फिरो तुम हमको , हम ढूँढें बावरिया रे  
उड़ जाएँ तो लौट न आएँ , ज्यों मोती की लड़ियाँ  रे  

चढ़ती उमर बढ़ी तो कुल -मर्यादा से जा टकराई
पगड़ी गिरने के दर से , दुनिया जा डोली ले आई
मन रोया , गूँजी शहनाई
नयन बहे , चुनरी पहनाई
पहनाई चुनरी सुहाग की , या डाली हथकड़ियाँ  रे  
उड़ जाएँ तो लौट न आएँ , ज्यों मोती की लडियाँ  रे  

मंत्र पढ़े सौ सदी पुराने , रीत निभाई, प्रीत नहीं
तन का सौदा कर के भी तो , पाया मन का मीत नहीं
गात फूल- सा , काँटे पग में
जग के लिए जिए हम जग में
बाबुल तुम पगड़ी समाज के , हम पथ की कंकरियाँ  रे  
उड़ जाएँ तो लौट न आएँ , ज्यों मोती की  लड़ियाँ  रे  

माँग रची आँसू के ऊपर , घूँघट गीली आँखों पर
ब्याह नाम से यह लीला ज़ाहिर करवाई लाखों पर

नेह लगा तो नैहर छूटा , पिया मिले बिछुड़ी सखियाँ
प्यार बताकर पीर मिली तो, नीर बनीं फूटी अँखियाँ
हुई चलाकर चाल पुरानी
नई जवानी पानी पानी
चली मनाने चिर वसंत में , ज्यों सावन की झड़ियाँ रे  ।
उड़ जाएँ तो लौट न आएँ , ज्यों मोती की लड़ियाँ रे  

देखा जो ससुराल पहुँचकर , तो दुनिया ही न्यारी थी
फूलों- सा था देश हरा , पर काँटो की फुलवारी थी
कहने को सारे अपने थे
पर दिन दुपहर के सपने थे
मिली नाम पर कोमलता के , केवल नरम कांकरियाँ रे  ।
उड़ जाएँ तो लौट न आएँ , ज्यों मोती की लड़ियाँ रे  

वेद-शास्त्र थे लिखे पुरुष के , मुश्किल था बचकर जाना
हारा दाँव बचा लेने को , पति को परमेश्वर जाना
दुल्हन बनकर दिया जलाया
दासी बन घर बार चलाया
माँ बनकर ममता बाँटी तो , महल बनी झोंपड़ियाँ रे  ।
उड़ जाएँ तो लौट न आएँ , ज्यों मोती की लड़ियाँ रे  

मन की सेज सुला प्रियतम को , दीप नयन का मंद किया
छुड़ा जगत से अपने को , सिंदूर बिंदु में बंद किया
जंजीरों में बाँधा तन को
त्याग -राग से साधा मन को
पंछी के उड़ जाने पर ही , खोली नयन किवड़ियाँ रे  ।
उड़ जाएँ तो लौट न आएँ , ज्यों मोती की लड़ियाँ रे  

जनम लिया तो जले पिता -माँ , यौवन खिला ननद -भाभी
ब्याह रचा तो जला मोहल्ला , पुत्र हुआ तो बंध्या भी
जले ह्रदय के अन्दर नारी
उस पर बाहर दुनिया सारी
मर जाने पर भी मरघट में , जल - जल उठीं लकड़ियाँ रे  ।
उड़ जाएँ तो लौट न आएँ , ज्यों मोती की लड़ियाँ  रे  

जनम -जनम जग के नखरे पर , सज -धजकर जाएँ वारी
फिर भी समझे गए रात -दिन, हम ताड़न के अधिकारी
पहले गए पिया जो हमसे अधम बने हम यहाँ अधम से
पहले ही हम चल बसें , तो फिर जग बाँटें रेवड़ियाँ  रे
उड़ जाएँ तो लौट न आएँ , ज्यों मोती की लड़ियाँ  रे
-0-


Friday, June 1, 2012

खुशबू है आँगन की (माहिया)


 रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
1
मिलने की मज़बूरी
पास बहुत मन के
फिर कैसी है दूरी
2
बेटी धड़कन मन की
दीपक मन्दिर का
खुशबू है आँगन की
3
आँसू सब पी लेंगे
जो दु:ख तेरे हैं
उनको ले जी लेंगे
4
मन की तुम मूरत हो
जितने रूप मिले
उनकी तुम सूरत हो