तुम कहो.. मैं लिखूँ (सॉनेट)
अनिमा दास
मैं जीवन लिखता हूँ तुम मृत्यु लिखो, मैं उत्तर लिखता हूँ तुम पश्चिम लिखो
संताप का अर्थ एक ही है...जीवंत हो अथवा मृत..अभिशाप भी
एक ही है
स्वतः आ जाए गीत तो..हर्ष व उल्लास लिखो..अथवा अधर
रक्तिम लिखो
सीमाओं में परिबद्ध आशाओं का...ध्वस्त होने की कहानी...
अनेक भी हैं।
कोई भी पर्व तुम्हे यदि प्रेम पर्व प्रतीत हो..मेरी
प्रतीक्षा ही होगी चतुर्दिश
तुम म्लान मुख्यमंडल से न देखना दर्पण..गवाक्ष पर होगी
एक प्रतिछाया
उस प्रतिछाया की भाषा में मेरे कुछ अक्षर होंगे,उनकी ध्वनि होगी अहर्निश
तुम कहोगी 'मैं गाती हूँ गीत..तुम
सुनो'..मैं कहूँगा 'तुम्हारे
शब्दों में है माया'।
उस मायापाश में होगी मेरी आत्मा बद्ध..करूँगा प्रश्न
मैं
'क्या यह था छल?'
तुम्हारी मौनता से अजंता की मूर्तियों में होगा
कंपन..क्या तुम रहोगी मौन?
कहूँगा,'न तुम जीवन
लिखो..मृत्यु नहीं है समीप..न है इसकी कामना सरल'
क्या तुम तथापि रहोगी मौन?... इस जम्बूद्वीप में प्रेम से सिक्त...होगा कौन?
इस उत्सव को कर मुखरित..प्रणय पाश में कर बद्ध..तुम हो
जाओ जीवित
मानवरूप में दैवत्य हो किंवा
दैत्य..इस काव्यकलश में रहेगी मृत्यु निश्चित।