पथ के साथी

Saturday, February 1, 2014

सीढ़ियाँ गवाह हैं ...





 सीढ़ियाँ गवाह हैं ...
कमला निखुर्पा
ये  खेतों की सीढ़ियाँ  गवाह हैं ...
एक ही साँस में, जाने किस आस में.... 
पूरा पहाड़ चढ़ जाती पहाड़न के पैरों की बिवाई को ...
रोज छूती हैं ये सीढ़ियाँ खेतों की ...
ये गवाह है -पैरों में चुभते काँटों की ....
माथे से छलकती बूँदों की ... 
जिसमें कभी आँखों का नमकीन पानी भी मिल जाता है .... 
ढलती साँझ के सूरज की तरह... 
किसी के आने की आस की रोशनी भी ....
पहाड़ के उस पार जाकर ढल जाती है... रोज की तरह ... 
धूप भी आती है तो मेहमान की तरह ...कुछ घड़ी के लिए ..
पर तुम नहीं आते ...
जिसकी राह ताकती हैं ,रोज ये सीढ़ियाँ खेतों की ... 
जिसकी मेड़ पर किसी के पैर का एक बिछुवा गिरा है ... 
किसी के काँटों बिंधे क़दमों से एक सुर्ख कतरा गिरा है ...
कितनी बार दरकी है... टूटी ह ये सीढ़ियाँ  खेतों की ... 
वो पीढ़ियाँ शहरों की ....कब जानेंगी ?
 !!!!

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