पथ के साथी

Thursday, October 6, 2016

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श्वेता राय

वो है सम्बोधन निरा मात्र, दिखें जहाँ सम्मान नहीं।
वो है उद्बोधन जिह्वा का, बसे जहाँ पर मान नहीं।।
हिय में यदि स्नेह तुम्हारे तो, शब्दों में स्वीकार करो।
चरणों में मत तुम शीश रखो, पर विचार से प्यार करो।
कठिन दौर वो गाँधी जी का, सब उनके थे अनुयायी।
उनकी एक बात पर होती, सब बातें धराशायी।
राह रोक वो खड़े हो गये, बोले अब बलिदान करो।
त्याग पत्र देकर सुभाष तुम, मेरे मत का मान करो।।
आन बान सम्मान बड़ा था, एक बात कब वो बोले।
जबकि उनके क्रोध के आगे, शेष नाग का फन डोले।।
छोड़ चले वो देश ये प्यारा, जगी खून में तरुणाई।
लिखने को अध्याय नया इक, क्रोध जनित थी अँगड़ाई।।
लौट यहाँ पर आऊँगा मैं, वंदन माँ! तेरा करता।
मातृभूमि का छू कर आँचल, शपथ हृदय में हूँ धरता।।
आज़ादी का खेल कहाँ बस, लाठी से खेला जा
गरम खून में रह रह कर ये, भावों का रेला आ।।
आज़ादी की आस लिये मन, दर दर पर थे वो भटके।
वर्मा से पहुँचे सिंगापुर, कहाँ कभी थे वो अटके।।
चौवालिस था वर्ष सदी का, विश्व युद्ध था गहराया।
अंग्रेजो की कुटिल चाल पर, बिजली बन जो भहराया।।
भारत छोडो के नारे से, गूँजी थी गलियाँ सारी।
करो मरो का भाव लिये सब, अंग्रेजो पर थे भारी।।
तभी बनाकर हिन्द फ़ौज को, चला हिन्द का मतवाला।
चलो चलो सब मिलकर दिल्ली,अम्बर तक गूँजा नाला।।
उसदिन उद्बोधन की महिमा, थी लोगों ने पहचानी।
जिस दिन सुभाष ने भारत में, आने की फिर से ठानी।।
चार जून चौवालीस को वो, देते हैं इक संबोधन।
वैचारिक सम्मान का लोगों, सुनो सुनो ये उद्बोधन।।
बापू! अपने चरणों में अब, नमन मेरा स्वीकार करें।
नये पंथ का मैं हूँ पंथी, झुका हुआ सिर हाथ धरें।।
राष्ट्र पिता! ये कार्य नेक है, राह हमारी अलग अलग।
पर पायेंगें आज़ादी हम, चलते चलते पग पग पग।।
भारत ने उस दिन दुनिया को, एक रूप था दिखलाया।
लाख दूर हो जड़ से पत्ता, पर देता उसको छाया।।
पुत्र, पुत्र ही रहा सदा से, मान पिता का है करता।
गरम खून भी झुक के हरदम, शीश चरण उनके धरता।।
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