व्यथा
शशि पाधा
धरती रोती ,पर्वत रोते, रो रही चारों दिशाएँ
मानवता की बलि चढ़ी है, रो रही हैं भावनाएँ।
जल रहा कश्मीर आज, सुलगा हिन्दोस्तान है
इंसानियत को क्यों
भूलता जा रहा इंसान है ।
श्वेत रक्त हो चला आज , आतंक शस्त्र ले खड़ा
आदमी को मारने क्यों आदमी ही चल पड़ा।
किस दिशा से उड़ चलीं, विनाश की आँधियाँ
जल रही कितनी चिताएँ, गहरा रहा है धुँआँ।
पुँछ गए सिन्दूर कितने, माँ की आँख रो रही
उदास सा बचपन खड़ा, बहना राखी ले खड़ी।
संहार का अंधेर आज हर तरफ है छा रहा
आदमी हैवान बन कहर कितना ढा रहा ।
प्यार पलता था जहाँ, वो देश यूँ वीरान क्यों
फूल खिलते थे जहाँ वो बाग़ अब श्मशान क्यों ।
सूने से घर-गाँव हैं, सिसकी गेहूँ की बालियाँ
मौन हुईं
गलियाँ चौपालें, सूनी दीप थालियाँ ।
गौतम की धरती पर आज, हिंसा तांडव कर रही
गाँधी के आदर्शों की देखो होली आज जल रही।
अंत हो अधर्म का अब, एकता का राज हो
नाश हो हर पाप का, एकता
अधिराज हो ।
हो अंत काली रात का, आतंक का भी हो दमन
है प्रार्थना अब ईश से, चिरसुख का हो आगमन।
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2-क्षणिकाएँ
ज्योत्स्ना प्रदीप
1-सीख
माँ ने कहा था -
"बेटी
सब सहना
और हाँ....
'अच्छे से' रहना"
!!
2-उदारता
उदारता
की
यही तो अदा है
वो पेड़ झुक गया
जो
फलों से लदा
है !
3- फ़र्क
ओ छुईमुई..
इस दौर में भी
तेरी सकुचाहट
में
कोई फ़र्क
नज़र नहीं
आता है !
कुछ सीखो नागफनी से...
उससे उलझने से तो
विषधर भी कतराता
है !!
4- खूबसूरत
मंज़र
बेहद खूबसूरत
मंज़र था
कल चाँदनी रात !
इक बेल लिपट गई थी
पौधे से जैसे
शरीक - ए -
हयात !
5-आँसू
बदलियों ने
जब दरख़्तों को
अपने आँसू
भेजे
तो कुछ ने
अपनी खोखल में
अब तक हैं सहेजे
!
6- सुकून
ज़हन में
बड़ा सुकून होता है
जब दिल
में
इन्सानियत ज़िंदा
रखने का
जुनून होता है !
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