पुष्पा मेहरा
यह क्या हुआ !
स्तब्ध दिशाएँ हो गईं
सो गए हैं शब्द
मौन वाणी हो गयी ।
धुंध है, खामोशी
है,
बेचैनी है फ़िज़ाओं में
आँखें अँधेरा चीर कर
रोशनी खोजती हैं ।
अश्रु ढल- ढल
नदी बन गए हैं
पहाड़ी नदी से
दर्द अपना कह रहे हैं।
आकाश भीगा-
ठहरा हुआ है
द्रवित किरणें सूर्य की
अर्पण- भाव- रंजित हैं।
चाँद खामोश,
चाँदनी -
अश्रु- जल ले
उतरी हुई है ।
झिलमिलाहट सितारों की-
सहमी हुई है,
हवाओं की सनसनाहट में-
अकुलाहट भरी है ।
ख़ामोशियाँ -
दर्द की चादर में लिपटीं,
निर्वस्त्र- पर्वत- शिखर-
अंग- अंग शिथिल हैं
शोर है, आवाज़
है,
सन्नाटा घिरा है
उसकी लम्बी ज़िन्दगी
घर-घर जा बसी है।
बादलों को-
आज जाने क्या हुआ !
विक्षिप्त से उत्पाती बने
जो डोलते हैं।
"देव-बन्धु! यह क्या कर गए
विक्षिप्त-उत्पाती क्यों हो गए।’’