पथ के साथी

Tuesday, December 15, 2015

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1-अपनापन
कृष्णा वर्मा

समझ लेता
कभी थोड़ा- सा
जो मेरे मन को
तुम्हारा
सलीकेदार अपनापन
मिट जाती
मेरे दिल की सलेट पे
लिखी शिकायतें
थाम लेता यदि
भूले से कभी
मेरे काँधे को
तुम्हारा
विश्वास- भरा हाथ
सिकुड़ जातीं
मेरी परेशानियाँ
और फूल जाता
गर्व से
मेरी तसल्लियों का सीना
बिछ जाती
पाँव के नीचे
नर्म धूप
रोज़ रात
मेरी खिड़की की
सलाखों पे
आ टिकता चाँद
और रचने लगती
मेरी रिक्तता
फिर
कोई अभिनव गीत।
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2-डॉ कविता भट्ट
द्रुपदा अब भी रोती है

बाल पकड़कर मुझे घसीटा आज कहाँ रनिवास गया
सम्मान गया, विश्वास गया, आशा का प्रश्वा गया

रक्त बिन्दुओ की धारा- सा, हाय! ये सिंदूर धधकता है
जो कंगन तुमने पहनाया, वही उपहास तुम्हारा करता है

हे आर्य! अर्धांगिनी तुम्हारी विवश विलाप ये करती है
एक नारी पर कौरव शत्रु सभा आज प्रलाप ये करती है
  
सिंहासन सत्ता के मद का इतिहास कलुषित रोता है
किन्नर है वह स्त्री कलुषक उसमे पौरुष नहीं होता है

लाज मेरी नही, ग तुम्हारी, क्यों बैठे हो मौन धरे
चीर नही जब बचा पाए तो, फिर तुम मेरे कौन अरे

कोई महल की वस्तु समझकर, नारी पर दाँव लगाते हो
शत्रु नहीं दोषी तुम हो, पौरुष दंभ में गोते खाते हो     

धर्मराज धिक्कार पांचों पर, जुआरियों का धर्म निभाया
स्त्री का मान सामान बना, पुरुषों ने कीच में कर्म डुबाया

भरतवंश, नारीपूजन ग्रन्थ का पन्ना काला करने वालों
चीखती-रोती द्रुपदा अभी भी है, सभ्यता का दम भरने वालो
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दर्शनशास्त्र विभाग,हे न ब गढ़वाल विश्वविद्यालय
श्रीनगर गढ़वाल उत्तराखंड
संपर्क सूत्र- mrs.kavitabhatt@gmail.com
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3-मंजूषा 'मन'

दरिया थे
मीठे इतने कि
प्यास बुझाते
निर्मल कि पाप धो जाते
अनवरत बहे
कभी न थके
निर्वाध गति से
भागते रहे
सागर की चाह में
मिलन की आस में
न सोचा कभी
परिणाम क्या होगा
मेरा क्या होगा।
अपनी धुन में
दुर्गम राहें,
सब बाधाएं
सहीं हंस के
और अंत में
जा ही मिले
सागर के गले।
पर हाय!!
स्वयं को मिटाया
क्या पाया
ये क्या हाथ आया
कि
खारा निकला सागर
खाली रह गई
मन की गागर।
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