पथ के साथी

Thursday, January 27, 2022

1181-क्षणिकाएँ

 

प्रीति अग्रवाल

1.

सोचती हूँ,

इतने बरसों तक,

तुमने मेरी मुस्कुराती छवि को

अपने हृदय में

कैसे सम्भाल कर रखा होगा...

इतने बरसों में,

मैं तो खुद को ही

न जाने, कहाँ

रखकर भूल गई... !

2.

लगता है, कल रात

तुम फिर रो थी...

तुम्हें कैसे पता...

सुबह उठा, तो

मेरे कुर्ते का बायाँ कँधा

कुछ सीला-सा था...

हाँ, मैं उसी तरफ सोती थी!

3.

बिखरते हैं,

समेटती हूँ...

फिर बिखरते है,

फिर समेटती हूँ...

रोज़ इतनी मेहनत

क्यों करती हूँ?

सपने हैं,

ऐसे कैसे छोड़ दूँ!

4.

कई बार

राह पलटकर देख ली,

कुछ दुखते हुए पल

रूबरू हो ही जाते हैं...

ये,

हम दोनों की

पुरानी आदत है।

5.

जाने क्यों

हर वक्त

कारण ढूँते हैं,

पहले भी तो

बेवक्त,

बेबात,

बेहिसाब

हँसा करते थे...!

6.

मैं कहती रही

तुमने सुना ही नहीं,

कहने सुनने को अब

कुछ रहा ही नहीं...

7.

कभी मौक़ा,

तो कभी अल्फ़ाज़,

ढूँढती रह ग...

मेरे दिल की

मेरे

दिल में ही रह गई।

8.

मुसाफिरी की हमको

है आदत पड़ी...

हर वक्त पुकारे

है मंज़िल न!

9.

अल्हड़ नदी

राह पथरीली,

छिलती

दुखती

किसी से

कुछ न कहती,

मीठी की मीठी...

कुछ कुछ,

मुझ सी... !

10.

राहें,

दोराहे,

चौराहे बनी

राहगीर बँटते गए...

ज़िन्दगी चलती रही...!

Monday, January 17, 2022

1180

 

कुछ छोटी कविताएँ/ हरभगवान चावला

1.

औरतों ने जादू के ज़ोर से


शैतान को इन्सान बनाना चाहा

कामयाब नहीं हुईं तो

जादू से ख़ुद को पत्थर कर लिया

पत्थर से इन्सान होने का जादू

उन्हें नहीं आता था।

2.

मैं बनी बनाई दुनिया में 

कुछ लोगों के साथ रह रहा था

मैंने कल्पना में एक और दुनिया बसाई

उस दुनिया में सिर्फ़ वही लोग रहते हैं

मैं जिनके साथ रहना चाहता आया था।

3.

गौरैया के पास तिनकों के अलावा

कोई सम्पत्ति नहीं होती

उसे इससे अधिक चाहिए भी नहीं।

4.

मर चुके रीति रिवाज़ों के शव सड़ांध मार रहे थे

और हम उन्हें कन्धों पर ढोए जा रहे थे

ये शव हमारी आत्मा पर काबिज़ हुए

और हम इन्सानों से प्रेत हो गए।

5.

माँ अचानक नींद से जागती है

और चिल्लाती है - भागो, हमला आया

बदहवास सी वह सबको ग़ौर से देखती है

फिर कहती है -सो जाओ, सब ठीक है

विस्थापित माँ का हर सपना

दरअसल विस्थापन से शुरू होता है।

                              -0-

Saturday, January 15, 2022

1179

 मंजूषा मन की कविताएँ

 1.घुटने के बलमंजूषा मन


हार कर

एक बार

टेक दिए घुटने,

 

फिर हार के डर से

 

और फिर

पीड़ा और दर्द से घबराकर

 

धीरे -धीरे

ऐसे ही बन गई आदत

घुटनों के बल चलने की।

 

लगने लगा डर

खड़े होने से।

 

2. कोशिशें/ मंजूषा मन

 

वो जब भी कोशिश करती

खड़े होने की,

वे कहते -"बैठ जाओ"

 

वो जब चाहती नज़रें मिलाना

वे क्रोधित हो कहते -"नज़र नीची रखो"

 

अगर वो कोशिश करती

अपने मन की कहने की

वे ललकारते -"खबरदार!"

 

वो दुबकी रही

वो नज़रें झुकाए रही

वो मुहँ छुपाए रही

वो सहमी रही

वो डरी रही

 

और धीरे- धीरे

ये डर

रगों में जगह बनाता गया

बहने लगा खून में...

 

पर अब भी...

वो करती है कोशिशें

खड़े होने की

नज़र उठाने की

खिलखिलाने की

अपनी बात कहने की

 

और उसे विश्वास है

एक न एक दिन

कोशिशें कामयाब ज़रूर होतीं हैं।


3.सबसे ज़्यादा

 

जिन की रफ़्तार ते थी

सबसे ज़्यादा  लगाए गए रोड़े

उन्हीं की राहों में,

 

जिसने सिर उठाकर देखा

आसमान की ओर

सबसे ज़्यादा काटे गए

उसी के पंख,

 

जो उठ खड़े हुए बार-बार

सबसे ज़्यादा रौंदा गया

उन्हें ही,

 

जिसने कोशिश की मुहँ खोलने की

कुछ बोलने की

सबसे ज़्यादा बाँधी गईं पट्टियाँ

उनके मुँह पर,

 

हाँ...

घुटने टेकने वालों के लिए

कुछ रियायतें दी ईं ।

Thursday, January 13, 2022

1178- परदेसी

 प्रीति अग्रवाल


देखो, तुम आया न करो
आओ, तो जाया न करो...

इंद्रधनुष के सात रंग में
मन मेरा रंग जाता है,

फिर अश्रुधार में बारी- बारी
एक-एककर, घुल जाता है...
देखो, तुम आया न करो,
आओ, तो जाया न करो!

आओगे तुम, हर धड़कन में
सुर और ताल समाता है,
जाते कदमों की आहट से
मन बैठा- सा जाता है...
देखो, तुम आया न करो,
आओ, तो जाया न करो!

चुन-चुन ख्वाबों की कलियाँ
दामन मेरा भर जाता है,
रीता दामन फिर रह-रहकर
मुझको बहुत सताता है...
देखो, तुम आया न करो,
आओ, तो जाया न करो!

हरसिंगार, गेंदा, गुलाब
जब सारा तन महकाता है
तुम बिन महके, जो तन मुझको
देर-तलक तड़पाता है...
देखो, तुम आया न करो,
आओ, तो जाया न करो!

साथ तुम्हारे दूर देस के
परिस्तान हो आती हूँ,
धरती पर वापस आने से
मगर बहुत सकुचाती हूँ...
देखो, तुम आया न करो,
आओ, तो जाया न करो!

ख्वाब अधूरे थे, जो अब तक
सब पूरे हो जाते है
साथ हमारा रहे सदा तक
बस वो ही रह जाता है....
देखो, तुम आया न करो,
आओ, तो जाया न करो!

आओगे तुम मैं यह जानूँ
और जाना भी है तुमको,
बेबस मन की सुन लो, किंतु
उसपर न तुम ध्यान धरो,
आते रहना प्रियतम यूँ ही,
तुम यूँ ही, आ जाया करो....

आते रहना प्रियतम यूँ ही,
तुम यूँ ही, आ जाया करो!
-0-

Friday, January 7, 2022

1177-समय !

 सुशीला शील राणा

 

लिखो अग्रसंधानी में


सबके कर्म

पाप-पुण्य

धर्म-अधर्म

 

समय !

पूरे धैर्य-विवेक से

करना विवेचन

 

जो रहे जीवन का हिस्सा

क्या रहा उनका किस्सा

क्या रही उनकी फ़ितरत

क्या रहा उनका क़िरदार

कौन कितना रहा वफ़ादार

अपनों के मुखौटे लगा

कौन कितना रहा गद्दार

 

 

समय !


लिखो अपनी बही में

सारे के सारे षड़यंत्र

धोखे-छल-कपट-प्रपंच

सब की सब जालसाजियाँ

पीठ में घोंपी गईं छुरियाँ

 

 

समय !

रखना पूरा का पूरा हिसाब

किसने कितने दिए घाव

किसने लगाया मरहम

किसने कितने दिए आँसू

किस-किस ने दी मुस्कुराने की वज़ह

किस-किस ने छीना

जीने का आधार

किस-किस के साथ ने

भरोसे ने लिया थाम

 

 

समय !

यहीं करो न्याय

इसी जीवन में

इसी धरती पर

बहा दो वैतरणी

तड़पे यहीं हर पापी

लागू हों शास्त्र वर्णित

पुराणों के दंड विधान

कि देख सकें लोग

जीवितों को भोगते

अपने पापों का दंड

ताकि डरे हर इंसान

करने से पहले पाप

 

समय !

खोलो स्वर्ग के द्वार

इसी धरती पर

कि जीते जी

भोग सकें पुण्यात्माएँ

अपने पुण्यों का फल

स्वर्ग सा सुख

ताकि कायम रहे

अटूट आस्था

धर्म में, कर्मों के फल में

 

समय !

कर रहे हैं आह्वान

सभी सरल जन, भोले मन

कि बची रहे यह धरा

पापों के बोझ से

महा प्रलय से

बना रहे अस्तित्व

धर्म का

कर्म का

ईश्वर का

न्याय का

-0-

Thursday, January 6, 2022

1176-हिंदी साहित्य की विशिष्ट विभूति;कमलेश्वर

 

जन्मदिन पर विशेष

                     -डॉ. शिवजी श्रीवास्तव

कमलेश्वर हिंदी साहित्य की विशिष्ट विभूति हैं। पद्मभूषण से सम्मानित कमलेश्वर की प्रतिभा बहुआयामी थी। वे एक श्रेष्ठ कहानीकार के साथ ही श्रेष्ठ उपन्यासकार,लोचक,सम्पादक, फिल्मकार, संवाद लेखक एवं पटकथा लेखक थे। उनकी कथा-प्रतिभा का मूल्यांकन करते हुए साहित्य अकादमी के अध्यक्ष श्री गोपीचंद सारंग ने कहा था-"कमलेश्वर जैसा लेखक दोबारा पैदा नहीं होगा,वे अपने अंदाज के अकेले लेखक थे। प्रेमचंद युग के बाद कोई लेखक इतना नहीं पढ़ा गया जितने कि कमलेश्वर।"...निःसन्देह वे अपने समकालीनों में सबसे ज्यादा लोकप्रिय हुए अपनी सहज सम्प्रेषणीय शैली के कारण वे पाठकों से सीधा संवाद करते प्रतीत होते हैं,उनके विषय भी जीवन के इतने निकट होते हैं कि हर पाठक को वह कहानी अपनी- सी प्रतीत होने लगती है। कमलेश्वर के लेखन के मूल में उनके जीवन अनुभव थे। उन्होंने दुःखों,अभावों और आम आदमी की पीड़ाओं को अत्यंत निकट से देखा था,वही अनुभव उनके कथा साहित्य में आकार लेते रहे।

6 जनवरी 1932 को उत्तर प्रदेश के एक छोटे से कस्बानुमा शहर मैनपुरी के एक कायस्थ परिवार में जन्मे कमलेश्वर का बचपन अभावों में व्यतीत हुआबचपन मे ही पिता को खो चुके कमलेश्वर ने सारे संस्कार माँ से ही ग्रहण किए। अपनी प्रारम्भिक शिक्षा मैनपुरी में ग्रहण करने के बाद वे उच्च शिक्षा हेतु इलाहाबाद गए,वहाँ पढ़ाई के साथ ही उन्होंने 'जनक्रांति' अखबार में कार्य भी किया,यहीं से उनकी साहित्यिक यात्रा शुरू हुई। उनकी पहली प्रकाशित कहानी 'कामरेड' थी;  पर उन्हें जिस कहानी ने उन्हें चर्चित किया वह थी 'राजा निरबंसिया' 1957 में प्रकाशित दोहरे कथानक वाली इस लम्बी कहानी में उन्होंने दो युगों के नैतिक मूल्यों के द्वंद्व को बड़े ही कौशल के साथ चित्रित किया। मैनपुरी के परिवेश पर लिखी लिखी इस कहानी ने उन्हें स्थापित कथाकारों की श्रेणी में खड़ा कर दिया। उसके बाद कस्बे के परिवेश पर ही उन्होंने 'गर्मियों के दिन',नीली झील,'देवा की माँ,'मुर्दों की दुनिया' जैसी कई कहानियाँ लिखीं।आलोचकों ने इन्हें कस्बे की कहानियाँ कहा और कमलेश्ववर कस्बे के कहानीकार के रूप में प्रसिद्ध हो गए। कमलेश्वर एक ही पड़ाव पर नहीं रुके आगे चलकर उन्होंने शहरी मध्यवर्ग और उच्चवर्ग की जटिल संवेदनाओं पर भी कहानियाँ लिखीं। 'खोई हुई दिशाएँ','बयान','दिल्ली में एक मौत',चार महानगरों का तापमान'जैसी कई  इसी मानसिकता की कहानियाँ हैं।
  हिंदी कहानी के दो आंदोलनों के प्रवर्तकों में भी कमलेश्वर का योगदान अविस्मरणीय है। सन्1950 क़े बाद हिंदी कहानी का परम्परागत ढाँचा टूटना शुरू हो गया था और नए प्रकार की प्रवृत्तियाँ कहानी में आने लगी थीं इन्हीं प्रवृत्तियों को 'नई कहानी' नाम दिया गया। राजेन्द्र यादव,मोहन राकेश और कमलेश्वर इस आंदोलन के सूत्रधार माने गए। कमलेश्वर द्वारा एक और आंदोलन 'समांतर कहानी आंदोलन'का प्रवर्तन भी किया गया। सन 1971 के आसपास कमलेश्वर सारिका के सम्पादक थे,उसी के माध्यम से उन्होंने समांतर कहानी आंदोलन की शुरुआत की इसे आम आदमी के आसपास की कहानी का आंदोलन भी कहा गया। इस आंदोलन ने हाशिए पर पड़े आदमी की जिंदगी को कहानी के केंद्र में स्थापित किया।
  कमलेश्ववर एक प्रतिबद्ध कथाकार थे,उनकी प्रतिबद्धता आम आदमी की बेहतरी के लिए थी,वे प्रगतिशील मूल्यों के पक्षधर थे। उनकी यह प्रतिबद्धता उनके उपन्यासों में भी परिलक्षित होती है। उनका प्रथम उपन्यास 'एक सड़क, सत्तावन गलियाँ' मैनपुरी की पृष्ठभूमि पर हैबाद के उपन्यास मध्यवर्ग की समस्याओं पर केंद्रित हैं। उन्होंने बारह उपन्यास लिखे। उनका अंतिम उपन्यास 'कितने पाकिस्तान' कथ्य और शिल्प दोनों ही दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। परम्परागत शिल्प को तोड़ता हुआ व्यापक कैनवास वाला यह उपन्यास कथ्य में भी अद्भुत है। विश्व की अनेक भाषाओं में इसके अनुवाद हुए 2003 में इसे 'साहित्य अकादमी' से सम्मानित किया गया।
एक फिल्मकार और पटकथाकार के रूप में भी वे सफल रहे। दूरदर्शन को भी उनका योगदान महत्त्वपूर्ण है। सन 1980 से 1982 तक वे भारतीय दूरदर्शन के अतिरिक्त महानिदेशक रहे। यह वह कालखण्ड था जब दूरदर्शन को श्वेत श्याम से रंगीन किया जा रहा था, ये सारी परियोजना कमलेश्ववर जी के समय की ही थी।
  कमलेश्वर एक सफल पत्रकार भी रहे।'नई कहानियाँ' 'सारिका' ,'कथायात्रा','श्रीवर्षा' 'गंगा' इत्यादि अनेक साहित्यिक पत्रिकाओं के साथ ही दैनिक जागरण,दैनिक भास्कर  से भी वे जुड़े रहे।
उनकी साहित्यिक यात्रा को देखते हुए सन2005 में उन्हें भारत सरकार के पद्मभूषण सम्मान से सम्मानित किया गया। 27 जनवरी 2007 को कमलेश्वर ने इस संसार से विदा अवश्य ले ली ; पर अपनी कालजयी कृतियों के माध्यम से वे सदा हमारे साथ रहेंगे।