पथ के साथी

Thursday, November 21, 2024

1440

1-दूर –कहीं दूर/ शशि पाधा

 


अँधेरे में टटोलती हूँ

बाट जोहती आँखें

मुट्ठी में दबाए

शगुन के रुपये

सिर पर धरे हाथों का

कोमल अहसास

सुबह के भजन

संध्या की

आरतियाँ

लोकगीतों की

मीठी धुन

छत पर रखी

सुराही

दरी और चादर का

बिछौना

इमली, अम्बियाँ

चूर्ण की गोलियाँ

खो-खो, कीकली

रिब्बन परांदे

गुड़ियाँ –पटोले

फिर से टटोलती हूँ

निर्मल स्फटिक- सा

अपनापन

कुछ हाथ नहीं आता

वक्त निगल गया

या उनके साथ सब चला गया

जो चले गए

दूर--- कहीं दूर

किसी अनजान

देश में

और  फिर

कभी न लौटे।

-0-

2-कुछ शब्द बोए थे - रश्मि विभा त्रिपाठी

 


जैसे अभाव के अँधेरे में

हो सविता!

खेतों में किसान ने

जब बीज बोए

तैयार करने को फसल

दिया था जब खाद- पानी

तो गेहूँ की सोने- सी बालियों की

चमक में 

उसे ऐसी ही हुई थी प्रतीति,

 

मैं नहीं जानती मेरी भविता

मेरे अतृप्त जीवन ने तो

मन की 

बंजर पड़ी जमीन पर

अभी- अभी कुछ शब्द बोए थे

भावों की खाद डालकर

अनुभूति के पानी से सींचा ही था

कि देखा- 

कल्पवृक्ष- सी

वहाँ उग आई कविता।

 

और ऐसा लगा

मुझको जो चाहिए

जीने के लिए 

मेरे कहने से पहले

पलभर में वो सबकुछ लाक

मेरे हाथ पर रखने आ गए पिता।

-0-



Saturday, November 16, 2024

1439

 

दोहे - विभा रश्मि (गुड़गाँव)


1

ओसारे में रात भर, भीगा पीत गुलाब।

रूप दिया फिर भोर ने, छिटका अमित शबाब।।

2

बिछे डगर में शूल जब, करें पाँव में छेद।

करके लहूलुहान भी, जतलाते ना खेद।।

 3

रिश्ते सब ओछे हुए, कैसे पले लगाव।

चिंदी- सा ईंधन बचा, कैसे जले अलाव।।

4

फुलवारी क्यारी कहे, सुन ले मन की बात। 

बिखरा सरस सुगंधियाँ, हँस ले सह आघात।। 

5

सुबह की नरम धूप खा, झूमी हरियल घास।

पीत रंग का पुष्प खड़ा, जगा रहा था आस।।

6

जन्मों का बंधन बँधा, जीता मन का साथ।

फिर क्यों मेरे हाथ से, छूटा तेरा हाथ।।

7

चलें हवाएँ विष भरी, दूषित हर जलधार।

कुदरत भी है सोचती, किसने ठानी रार।।

8

सघन कुहासा है तना, धुँधली हुई उजास।

सभी नज़ारे छुप गए, मनवा हुआ उदास।।

9

जल जिस साँचे में पड़े ,लेता वह आकार।

ऐसा ही सज्जन सदा, करते हैं आचार।।

10

किरणें नहलाती रहीं, उपवन झील पहाड़।

तिल जैसे नन्हे घटक , बनना चाहें ताड़।।

-0-

Thursday, November 14, 2024

1438-तुम्हारा भाव!

 रश्मि 'लहर

 


प्रिय!

तुम्हारी प्रतीक्षा में

जला देती हूँ कुछ दीप

अनायास

तुलसी के आसपास!

 भर जाता है रोम-रोम में

तुलसी की  सुरभि से लिपटा

तुम्हारा भाव!

पत्तियों की ओट से झाँकती

जलती लौ

हर लेती है मेरा हर अभाव!

 मेरे पास रह जाता है,

मेरे शब्दों का पल्लव

स्वप्कोष का कलरव

और

बस यूँ ही तुम्हारे बिना..

मेरा बीतना

सिखा देता है 

अपने प्रेम के दरख्त को

सजल आवेग से सींचना!

 मुझे सहेज लेती है प्रेम की पावन भक्ति

जीत लेती है मुझे तुम्हारे नेह की 

अकल्पित दृष्टि!

 मेरी मूक पलकों से बह पड़ती है

तुम्हारे निश्छल वियोग की अभिव्यक्ति!

छलछला पड़ती है

मेरे साथ-साथ,

तुम्हारी सुरभित स्मृतियों से ढकी 

संपूर्ण सृष्टि!