1-नारी उठ जग ज़रा
कमला घटाऔरा
नारी उठ जाग ज़रा
वक्त नही अब सोने का
निज अधिकार खोने का
संघर्ष
खड़ा ललकारे तुझको।
बहुत जी लिया मर मर कर
चुप चाप आँसू पी- पी कर
वक्त की अवाज सुन जो
खड़ा पुकारे तुझको।
क्या होगा महिला दिवस मनाने से
चीखने चिल्लाने से
आधी सृष्टि पर अधिकार है तेरा
कौन भला छीनेगा तुझसे।
तू क्यों पीछे खड़ी सदा ?
सुना होगा यह कथन तुमने-
“बिन माँगे मोती मिले माँगे मिले न भीख।”
भूल न इस कथन को
कर दृढ़ निश्चय अपना
चलने से न रोक पाये
आ जाये गिरि खंड सामने
नर राक्षस खाने हड़पने
मारे तड़पाये करदे छलनी
हर ले यदि तन मन तेरा
करदे तार तार तू भी उसको
दिखला दे रण चंडी है तू
नहीं बिचारी युगों पुरानी
चारदिवारी की बंद चिड़िया
शिक्षा ने हैं पंख दिए
भर उडान तू ऊँची -नभ पुकारे है
सुदृढ़ बन सशक्त बन
आँख कान खुले रख
चुस्त _दुरुस्त रह हर वक्त तू ।
अपनी शक्ति जगा
अब तुझे शान से जीना है
जीने से न रोक सके तुझे
कोई अत्याचारी या मनचला।
जला सकें न तेज़ाब या तेल से
भाँप इरादा उसका
टकरा जा पहले करे गर बार कोई
तू आज की सशक्त नारी है
वक्त नही सोने का
नारी उठ अब जग जरा।
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2-साहित्य सृजन -सुनीता शर्मा ,गाजियाबाद
2-साहित्य सृजन -सुनीता शर्मा ,गाजियाबाद
एक ग्रंथ छुपा सभी के अन्तस् में ,
माँ शारदे की कृपा बरसने से ,
खुलता सृजन कपाट ..
जिससे निकलते असंख्य ....
कल्पना के पंछी जो ...
शब्दों की शक्ल में ..
अंकित होते कागजों में ....
पर ये मात्र पन्ने नहीं ......
होता सृजनकर्ता का कोमल हृदय ,
जो है सवेदनाओ का अनूठा संसार ,
पर शायद वह नहीं जानता कि ..
साहित्य सृजन नहीं सरल ,
जो आज हैं उनसे होता संघर्ष
निरंतर ,
अपने अस्तित्व की तलाश में ,
सहने पड़ते हैं असंख्य ...
वक़्त के थपेड़े ..
साहित्यकारों के व्यंग्यबाण...
बनते है जो अवरोध ,
एक चट्टान की भाँति ,
उस नदी पर जो ...
मनमौजी है ,सरल है ,
नहीं जानती कि..
साहित्य क़ी डगर है कठिन ,
सागर तक पहुँचने में
उसे पार करने हैं ,
छोटे से बड़े सभी ,
अडिग प्रहरियों को ,
जो समझते हैं ...
साहित्य को अपनी धरोहर ,
भ्रम में जीते जो अक्सर कि..
उनसे अच्छा व सच्चा कोई नहीं है
,
नहीं समझते जो सृष्टि का नियम ...
जो कल थे वे आज नहीं हैं ,
जो आज हैं , उन्हे भी पीछे हटना होगा ...
वैसे ही जैसे ....
बागों में पड़े पीले पत्ते
औ' वृक्षों के नवीन हरे पत्ते ,
दे देते हैं उत्तम सीख
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