पथ के साथी

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Sunday, March 28, 2021

1064

 

रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

 अंकुर फूटे आस के

मुखड़ा हुआ अबीर लाज से,


अंकुर फूटे आस के
,

जंगल में भी रंग बरसे हैं,

दहके फूल पलाश के। 

मादकता में आम डाल  की,

झुककर हुई विभोर है,

कोयल लिखती प्रेम की पाती,

बाँचे मादक भोर है। 

खुशबू गाती गीत प्यार के,

भौरों की गुंजार है ,

सरसों ने भी ली अँगड़ाई ,

पोर-पोर में प्यार है। 

मौसम पर  मादकता छाई ,

किसको अपना होश है,

धरती डूबी है मस्ती में ,

फागुन का यह जोश है।

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2-फगुनिया भोर 

विभा  रश्मि 

 

सिंदूरी डिबिया 

बिखर गई

रंग गई नीला अम्बर ,

तरबूज़ की रसीली फाँक थामे 

कितना भोला - भला सा लगा 

गुलाबी कपोलों में फागुन 

 

आगंतुक खग -वृन्दों के झुंड

तलैया -तट के

वृक्षों की शाख़ों पे बैठ

कलरव करते  -

कानों में माधुर्य रस घोलते रहे ,

वन में घूम -घूम कर मटराया 

घुमक्कड़ पवन ।

 

उदधि की चंचल तरंगों ने

मृदुल थपकियाँ  देकर

तट के कंकड़ों 

और बलुका कणों  पर 

उत्सवी गीत लिखे 

देख सखी ! फाग सजे ।

 

'भोर' फाग की 

आत्म विभोर हो -

सूर्य से माँग लाई भाँग ।

और

हौले - हौले  चलकर 

ताँबे की थाली में 

अभ्रक-भरा गुलाल ले आई  ,

फिर ठाड़ी हो गई

वो लजीली बन ...।

 

उसकी भीगी अलकों से 

टपकती ओस -बूँदें सतरंगी

छिटककर  बिखर गईं  

उसे निरख -निरख

फागुनिया भोर मुस्का दी -

'कालिदास ' की रूपवती नायिका- सी ।

 

सिंदूरी डिबिया बिखर गई .

रंगों  की द्यूति से खिलखिला पड़ा 

नीलाभ व्योम  

सुनहरे प्रभात के कितने  ठाठ 

देख सखि - 

पछुआ  बयार  ने चँवर डुलाया    

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3- कमाल कर रही हो

‌‌‌संध्या झा

 


अपनी शर्तों पर जी रही हो ।

 तो और खूबसूरत लग रही हो ।

 इतना जब्त कैसे है तुम में 

 जो ये कमाल कर रही हो ।

 अपनी दुनिया खुद ही बनाई है तुमने

 और खुद ही इसे बेमिसाल कर रही हो ।

  कोई और होता तो टूट जाता ।

  पर तुम तो हर सवाल का जवाब बन गई हो।

   इतना जब्त कैसे है तुम में 

  जो यह कमाल कर रही हो ।

  तुम अनोखी हो क्या  ?

  आसमान से उतरी हो क्या ?

   जो बहुत कुछ आसान कर रही हो।

   इतना जब्त कैसे है तुम में 

    जो यह कमाल कर रही हो ।

   सूरत और सीरत दोनों पाए है तुमने 

   रास्तों से भी मंजिल का काम ले रही हो।

   इतना जब्त कैसे है तुम में 

   जो यह कमाल कर रही हो ।

  अपनी शर्तों पर जी रही हो तो 

   और खूबसूरत लग रही हो  ।।

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  फ्लैट नंबर- 203 सत्येंद्र कांपलेक्स, खाजपुरा,

 बेली रोड ,मौर्य पथ, पटना (बिहार ) 800014 

Email -sandhyajha198@Gmail

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4-उड़ान बाकी है

 अर्चना राय

     


 राहें तो है बहुत मिल चुकी

पर मनचाही  मंज़िल पाना अभी बाकी है।

 चलना धीरे-धीरे तो सीख लिया

पर हवा से बातें  करना अभी बाकी है।

हौसलों की उड़ान बाकी है......

 

 सफलताएँ तो बहुत मिल चुकीं,

पर  मील का पत्थर मिलना बाकी है।

ख़्वाब तो पूरे बहुत हुए पर

अंतर्मन की गहराई में

 दबा सपना अभी बाकी है

 हौसलों की उड़ान बाकी है....

 

 पल पल बीत रही जिंदगी

 पर खुलकर जीना बाकी है

खुशियाँ तो हैं बहुत पर

मन का सुकून पाना बाकी है।

 पाने को मंजिल मनचाही

ज़िद पर आना बाकी है।

 हौसलों की उड़ान बाकी है.....

 

 प्रेम का रूप देखा है तुमने

 शक्ति रुप दिखाना बाकी है

 नारी कोमल है, कमज़ोर नहीं

दुनिया को दिखाना बाकी है

 हौसलों की उड़ान बाकी है......

 

 एक अध्याय गुर गया पर

 पूरा ग्रंथ अभी बाकी है।

 मेरा  समर्पण तो देख लिया तुमने

 पर प्रसिद्धि देखना बाकी है।

हौसलों की उडान बाकी है....

 

 माँ हूँ, बेटी हूँ, पत्नी भी हूँ

पर अपनी पहचान बनाना बाकी है

 जाने लोग मुझे मेरे दम से

 ऐसा नाम कमाना बाकी है

 हौसलों की उड़ान बाकी है......

 

 कलम हाथ में थाम तो ली है।

 पर धार लगाना बाकी है

 याद रखे दुनिया जिसको

 वह इतिहास लिखना बाकी है।

 हौसलों की उड़ान बाकी है.....

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अर्चना राय, भेड़ाघाट जबलपुर( मध्य प्रदेश)

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Friday, December 11, 2020

तीन कविताएँ

  1- तुम्हारी ओर!

डॉ. सुरंगमा यादव

थक न जाएँ  कदम


तुम्हारी ओर बढ़ते-बढ़ते
कुछ कदम तुम भी बढ़ो न !
चलो यह भी नहीं तो
हाथ बढ़ाकर थाम ही लो
ये भी न हो अगर
तो मुस्कराकर
इतना भर कह दो
'मुझे तुम्हारी प्रतीक्षा है'
बस मैं सदा तुम्हारी ओर
बढ़ती रहूँगी!

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2-बड़ी हुई है नाइंसाफी

भावना सक्सैना


राजधानी का रुख करते हैं
,

सत्ता से हैं बहुत शिकायत

सड़कें जाम चलो करते हैं।

 हों बीमार, या शोकाकुल हों

हम तो रस्ता रोकेंगे जी

कहीं कोई  फँस जाए हमें क्या

अपनी ज़िद पर हम डटते हैं।

 सत्ता ने ठानी सुधार की

वह तो अपने लिए नहीं जी

वंचित का चूल्हा बुझ जाए

हम अपने कोष हरे रखते हैं।

 सब्सिडी भी लेंगे हम तो

टैक्स रुपये का नहीं चुकाएँ

कर देने वाले, दे ही देंगे

तोड़-फोड़ हम तो करते हैं।

 सरकारों से बदला लेने

देश हिलाकर हम रख देंगे

हम स्वतन्त्र मन की करने को

आम जनों को दिक करते हैं।

 हमको बल ओछे लक्ष्यों का

कुर्सी के लालच, पक्ष हमारे

अपनी बुद्धि गिरवी रखकर

हम कठपुतली से हिलते हैं।

 बड़ी हुई है नाइंसाफी

राजधानी का रुख करते हैं,

सत्ता से हैं बहुत शिकायत

सड़कें जाम चलो करते हैं।

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 3-किताब

संध्या झा

  किसी ने सच ही कहा है-


 जिसने किताबों से दोस्ती कर ली 

  वो फिर अकेला कहाँ ।

  किताबों ने बस दिया ही दिया है ।

  उसने कुछ लिया है कहाँ  

 

किताबों को जिसने

अपना हमसर बनाया है ।

 किताबों ने भी हर राह पर साथ निभाया है  

 किताबें आपकी सोच में  फ़र्क़ करती है  

 किताबें आपको मीं से आसमाँ पे रखती है ।

 

 किताबें सहारा किताबें  किनारा ।

किताबें अँधेरी गलियों में चमकता सितारा ।

किताबों की सोहबत जैसे ख़ुद से मोहब्बत ।

किताबे सवारे बिगड़ी हुई सीरत  ।।

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Wednesday, November 25, 2020

1032-चार कवितएँ



 

1-हाँ मैं नारी हूँ!
डॉ सुरंगमा  यादव


हाँ मैं नारी हूँ!
सजाऊँगी  सँवारूँगी
तेरा घर
बंदिनी होकर नहीं;

पर संगिनी बन
चाहती हूँ प्यार की छत,
पर सदियों से
जिस आसमाँ पर
तू काबिज है
उस पर भी हिस्सेदारी
चाहती हूँ ।
बरसों  से तुझे मैं
सुनती आ हूँ
अब मगर
कुछ मैं भी कहना  चाहती हूँ
तेरी तरक्की पर
मन प्राण वारूँगी!
हाँ मगर कुछ मैं भी
करना चाहती हूँ
इससे पहले
हसरतें उन्माद बन जाएँ
खुद को मौका देना चाहती हूँ ।

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2-आँखें 

-मंजूषा मन

 

तुमने आँखें तरेरीं 

मैंने झुका लीं आँखें


जब तुमने दिखाईं आँखें

आँखें उठाने का साहस

खो गया मेरा,

तुम्हारी लाल आँखें देख

आँखें पड़ीं मुझे

बचने के लिए

आँख के सामने होने पर 

तुम्हारी आँखों में खटकी मैं

मैंने बिछाईं आँखें

तुम खेलते रहे

आँख मिचोली,

मेरी डबडबाई आँखें 

न देख सके तुम

और फेर लीं आँखें

मेरे इतर खूब सेकीं आँखें

धूल झोंक मेरी आँखों में

मैंने रखा तुम्हें आँखों में

पड़ा रहा पर्दा आँखों पर

पता नहीं चला

आँख का काँटा कब हुई मैं,

 

तुम्हें तो आँखों पर बैठाया

तुम्हारी आँखों से बरसे अंगारे

 आँखें तुमने फेर लीं जब

आँखें पथरा गईं मेरी 

मूँद लीं मैंने आँखें।

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3-एक माँ छुटी 

संध्या झा

 


एक माँ के लिए
,एक माँ छुटी 

एक माँ के लिए, एक माँ ने दी कुर्बानी है ।

ऐ भारत माँ तेरे लिए कितनी माँओं ने 

अपनी  आँखों में सजाए पानी हैं

 

वो लाल मेरा एक योद्धा सा 

दुश्मन को चीर गया होगा ।

 ऐ भारत माँ तेरी धरती पर 

शत्रु को उसने पैर ना धरने दिया होगा ।

 

 तेरी आन का मेरी मान का

 भार उसके कंधों पर रहा होगा ।

 इन दोनों की खातिर वो तो 

अकेला ही हजारों से लड़ा होगा ।

 

 जब सब ने मिलकर घेरा होगा 

 सोचा होगा कि वो डर जाएगा ।

एक  सिंहिनी का पुत्र था वो 

श्वानों से कैसे हार जाएगा ।

 

शूरवीरता उसकी देखने को 

देवता भी उतर आए होंगे

 जब उसने अंतिम साँसें ली होंगी

 सुमन उसके कदमों में चढ़ाए होंगे ।

 

विजय परचम जब उसने फहराया होगा

 तो खून से वो नहाया होगा ।

तेरी मिट्टी में जब वो गिरा होगा 

तेरी मिट्टी चूम रहा होगा।

 

 वो मरा  नहीं अमर है वो

 तेरी मिट्टी में मिल कर अजर है वो 

ऐ भारत माँ तू एक बार जो बुलाएगी

 तो ना जाने कितनी माँएँ उत्साह से

 पानी फिर से आंखों में सजाएगी  ।।

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तन्हा तन्हा/  अनिल श्रीवास्तव 'मुसाफ़िर'

 

जब याद अतीत की आती है,

जब रात क्षितिज पर छाती है,

 

जब शबनम आँसू बन जाते हैं,

तब मैं तन्हा तन्हा रो लेता हूँ.

 

 जब खामोशी शोर मचाती है,

जब सबा बदन को जलाती है,

 

जब बिछड़ों की याद आती है,

तब मैं तन्हातन्हा रो लेता हूँ.

 

जब बात विदित हो जाती है,

जब सत्य कथित हो जाता है,

 

जब रिश्ते कुंठित हो जाते हैं,

तब मैं तन्हा -तन्हा रो लेता हूँ.

 

जब होठों का कंपन याद आता है,

जब चंचल चितवन याद आते  हैं,

 

तब गुज़रा ठिकाना याद आता है,

मैं तन्हातन्हा उन में खो जाता हूँ.

 

अब बात समझ में आती है,

हम सब रंगमंच के साथी हैं,

 

अभिनय करके घर जाना है,

यह सोच सोच  हँ देता हूँ.

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