1-बात कुछ थी नहीं
शशि पाधा
बात
कुछ ऐसी न थी
फिर भी कुछ हो गई
अधर तक रुकी तो थी
आँख क्यूँ भिगो गई |
कहा-सुना कुछ नहीं
कुछ मलाल रह गया
मौन के सैलाब में
रिश्ता एक बह गया
बीच
मझधार में
कश्तियाँ
डुबो गई
बात
कुछ हो गई|
पदचाप न, थी आहटें
न धडकनों का राग था
न लिखी इबारतें
न आँसुओं का दाग था
वक्त की किताब में
धरी, कहीं खो गई
बात
ऐसी हो गई |
दो कदम रुके रहे
क्या थी मजबूरियाँ
फासलों के दरमियाँ
बढ़ गई दूरियाँ
बुझे बुझे अलाव में
अंगार
सी बो गई
बात
कुछ ऐसी न थी
फिर भी
कुछ हो गई|
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2- बिछड़कर डाल से
भावना सक्सैना
बिछड़कर डाल से
घूम रहीं है मुक्ति को
समा जाना चाहती है
वो अंक में धरती के
कि चुकाने है
कर्ज़ ज़िन्दगी के।
ठौर मिलता नहीं
बावरी घूमें यहाँ-वहाँ
इस कोने से उस कोने
हवा पर सवार
कभी घुस आती हैं
बिल्डिंग के भीतर
कुचली जाती हैं
भारी बूटों और
पैनी लंबी हील से।
धरती उदास है
कि एक वक्त था जब
शाख से जुदा हुई
सुनहरी पत्तियाँ
मचलती थीं
उसके वक्ष पर
आलोड़ित होती
मृत्ति कणों में
होतीं उनमें एकाकार
उसका रोम रोम
पुलक जाता था।
बरसते थे
आशीष सैकड़ों
जैसे कोई माँ
असीसती है
गलबहियाँ डाले
अपने लाडलों को
आज चीत्कार रही धरती!!!
कि अपने आँचल के
जिस छोर से
आश्रय दिया उसने
विकास की बेल को
उसने ढाँप दिया है
कोमल मृत्ति कणों को
और सिसक रही है
धरा बेहाल, ओढ़े
सीमेंट-पत्थरों की चादर।
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