पथ के साथी

Saturday, February 18, 2017

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1-देर कर दी...   

डॉ .जेन्नी शबनम 
  
हाँ ! देर कर दी मैंने   
हर उस काम में जो मैं कर सकती थी   
दूसरों की नज़रों में   
ख़ुद को ढालते-ढालते   
सबकी नज़रों से छुपाकर   
अपने सारे हुनर   
दराज में बटोर कर रख दिए   
दुनियादारी से फ़ुर्सत पाकर   
करूँगी कभी मन का।   

अंतत: अब   
मैं फिजूल साबित हो गई   
रिश्ते सहेजते-सहेजते   
ख़ुद बिखर गई   
साबुत कुछ नहीं बचा   
न रिश्ते ,न मैं ,न मेरे हुनर।   

मेरे सारे हुनर   
चीख़ते-चीख़ते दम तोड़ गए    
बस एक दो जो बचे हैं,   
उखड़ी-उखड़ी साँसें ले रहे हैं   
मर गए सारे हुनर के  क़त्ल का इल्ज़ाम
 मुझको दे रहे है   
मेरे क़ातिल बन जाने का सबब   
वे मुझसे पूछ रहे हैं।   

हाँ ! बहुत देर कर दी मैंने   
दुनिया को समझने में   
ख़ुद को बटोरने में   
अर्धजीवित हुनर को   
बचाने में।   

हाँ ! देर तो हो गई   
पर सुबह का सूरज   
अपनी आँच मुझे दे रहा है   
अँधेरों की भीड़ से   
खींच कर मुझे   
उजाला दे रहा है।   

हाँ ! देर तो हो गई मुझसे   
पर अब न होगी   
नहीं बचा वक़्त   
मेरे पास अब   
जो भी बच सका है   
रिश्ते या हुनर   
सबको एक नई उम्र दूँगी   
हाँ ! अब देर न करूँगी।   
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समीक्षा


चाँद मुट्ठी में कर ले
समोद सिंह चरौरा

इस साझा काव्य संग्रह के सम्पादक श्री नवीन गौतम जी ने अपने हुनर से देश के कोने- कोने से लेखनी के धनी प्रबुद्धजनों को तलाशकर व तराशकर उनकी कलम से निकली काव्य-धाराओं के जल से इस काव्य संग्रह को सिंचित किया है ..वैसे तो सभी मित्रों ने अपनी विशेषता से पुस्तक को विशेष
बनाने के लिए अलग अलग विधाओं में व अलग अलग विषयों पर संदेशात्मक रचनाओं से सकारात्मक सन्देश देने की पूरी कोशिश की है .लेकिन कुछ मित्रों की विशेष संदेशात्मक रचनाओं में आप के साथ जरूर साझा करना चाहूँगा ..जैसे कि नवीन जी की .कुण्डलिया छंद में लिखी ये रचना..
कहती कन्या कोख में, क्यों करती है शोक !
आने दे जग में मुझे, माँ मुझको मत रोक !!
...और इसी क्रम में आदरणीय अरविन्द पाराशर जी के सभी दोहे बहुत अच्छे हैं और भुजंगप्रयात छंद में लिखा  गीत...
जहाँ वंचनाएँ सदा नाचती हों !
जहाँ वासनाएँ सदा बाँधती हों !!
इसके बाद .बेहद सुंदर भाव व् संदेशों से भरपूर. रेनू शर्मा रेनुजा .जी की चौपाइयाँ, कुण्डलिनी, दोहा, रोला, सवैया, पञ्चचामर, गीतिका, हरिगीतिका, सार, विधाता, ताटंक, और मनमोहक घनाक्षरी छंद.और कमाल का कुकुभ
यत्न किया हो कितना भी पर !
मिट्टी में तो मिलना है..!!
पुस्तक का एक सबसे अच्छी रचना जो जितेंद्र नील जी की कलम से निकली .वैसे तो मैं नील जी के लेखन से भली-भाँति परिचित हूँ मगर आल्ह छंद में लिखी य रचना वाकई...लाजवाब है-
माँग रही है भारत माता ,
तुमसे अपना ये सम्मान !!
अभी बात करता हूँ छोटी बहन गुंजन की .गुंजन का लेखन वाकई काबिले तारीफ़ है इसमें कोई शक नहीं मैने कभी भी गुंजन को नवांकुर नहीं माना गुंजन जी की प्रत्येक रचना चाहे व किसी भी छंद में लिखी हो, एक मजे हुए कवि की रचना प्रतीत होती है ..इस पुस्तक में लिखे सभी कुण्डलिया छंद बेहद शानदार .जैसे कि
..क्षणभंगुर इस देह पर, करो नहीं तुम नाज!
दंभी ....
और.
तीखी वाणी बोलकर, खूब तरेरे नैन !
आदरणीया सुनंदा झा जी के काव्य को  नज़र अंदाज नहीं किया जा सकता उनकी एक सुंदर रचना जो सार छंद में लिखी है.उससे आपको रूबरू कराता हूँ -
.सुन ओ ! काले बादल जाकर, भैया से यह कहना !
राखी का धागा ले बहना, रस्ता देखे बहना !!
....मुझे लगा जैसे मुझसे कह रही हों .....
अब बात आती है ऐसे कवि की जो मनमौजी हैं मनमौजी थे और मनमौजी ही रहेंगे .मनोज जी की सभी दिल की गहराइयों से हास्य का पुट लेकर निकली हुई रचनाओं के साथ साथ ओज से भरपूर सृजन वाकई कमाल का है मनोज जी की सभी रचनाएँ मार्मिक व हास्य से भरपूर हैं .
जैसे...
बीवी संग तकरार में, हँसते रहो हजूर !
सुबह, दोपहर, शाम को, खाओ साथ खजूर !!

....अभी और भी काफी कुछ बाकी है..लिखने को मगर ज्यादा न लिखते हुए मैं इतना ही कहूँगा..कि श्री सुशील तिवारी जी..,श्री सत्येंद्र सिंह जी,..श्री सतीश द्विवेदी जी, श्री सुरेश अग्रवाल जी, श्री महेश यादव जी, आशा रानी जी, प्रह्लाद सोनी जी, रंगनाथन शुक्ल जी, अल्का चन्द्रा जी, अंकुर शुक्ला व् विनोद गंगावासी जी की सभी रचनाएँ इस पुस्तक की श्रेष्ठ रचनाएँ हैं ! मुझे उम्मीद है की ये पुस्तक पाठक के दिल पर अपनी छाप छोड़ेगी
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