विभावरी (सॉनेट )
अनिमा दास
होती घनीभूत यदि आशा की यह विभावरी
कलिकाएँ यौवना होतीं कई पुष्प भी महकते
पुष्पित होतीं शाखाएँ निशा सुनाती आसावरी
महाकाव्य लिखते हम,...मन द्वय भी चहकते ।
मैं बन तूलिका तमस रंग से रचती प्रणय- प्रथा
मधुशाला होता हृदय तुम्हारा मैं मधु- सी झरती
मन बहता मौन अभिप्राय में गूँजती स्वप्न -कथा
श्वास में होती मदमाती दामिनी प्रेम रस भरती ।
यह कैशोर्य सौम्य स्मृति बन जीवन में रहता प्रिय
अंतराल में होता मुखरित,...कभी होता सुरभित
ऐंद्रजालिक अनुभव में अंतरिक्ष ही बहता प्रिय
पीते अधरों से अधररस,भोर होती नित्य ललित ।
विछोह की इस पीड़ा को करती मोक्ष अंजुरी अर्पण
प्रेमकुंज की मालती मैं करती देह का अंतिम समर्पण ।
-0-अनिमा दास, सॉनेटियर,कटक, ओड़िशा