डॉ०
कविता भट्ट
घोर रात में भी खनखनाती
रही
पीर में भी मधुर गीत गाती रही ।
लाल-पीली-हरी काँच की चूड़ियाँ
आँसुओं से भरी काँच की चूड़ियाँ ।
उनके दाँव - पेंच में, टूटती रही
ये बिखरी नहीं, भले रूठती रही ।
प्यार में थी मगन काँच की
चूड़ियाँ
खुश रही हैं सदा, काँच की चूड़ियाँ ।
माना चुभी है इनकी प्यारी चमक
ये खोजती नई रोशनी का फ़लक
।
नभ में छाएँगी काँच की चूड़ियाँ
इन्द्रधनुषी सजी काँच की चूड़ियाँ ।
कोई नाजुक इन्हें भूल कर न कहे
इनका ही रंग-रूप रगों में बहे।
सीता राधा-सी काँच की चूड़ियाँ
अनसूया-उर्मिला काँच की चूड़ियाँ ।
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हे०
न० ब० गढ़वाल विश्वविद्यालय,श्रीनगर गढ़वाल उत्तराखंड