पथ के साथी

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Saturday, May 4, 2024

1414-दया धर्म का मूल है

  विजय जोशी  


 पूर्व ग्रुप महाप्रबंधकभेलभोपाल (म. प्र.)

जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू

सो तेहि मिलहि न कछु संदेहु

धर्म कोई शिष्टाचार रूपी पाखंड का प्रतिरूप नहीं है;  इसीलिए तो शास्त्रों में उसकी तदनुसार व्याख्या भी की गई है - धारयति इति धर्मम् अर्थात् जो भी धारण करने योग्य है, वह धर्म है। आदमी जब बड़ा होता है, तो दूसरों को तुच्छ तथा स्वयं को श्रेष्ठ न माने। यह मूल तत्त्व है। वस्तुत: उसे तो ईश्वर का आभारी होना चाहिए कि उसे सेवा का अवसर प्राप्त हुआ।

दया धर्म का मूल हैपाप मूल अभिमान

तुलसी दया न छांड़िये, जब लग घट में प्राण।

धीर गंभीर राम के मन में प्रजाजनों के लिये दया कूट कूट कर भरी हुई थी; इसीलिए उन्हें दया निधान भी कहा गया है। उन्होंने कभी भी सेवकों को आहत नहीं किया; वरन अपनी आकांक्षा को दबाकर उनका मान रखा। उनकी दृष्टि में तो न कोई छोटा है और न कोई बड़ा। न कोई नीच और न कोई उच्च। शबरी एवं केवट इसके साक्षात् उदाहरण हैं। वन गमन के दौरान जब वे गंगा तट पर आए, तो नदी पार करने हेतु उन्हें नाविक की आवश्यकता पड़ी।  उन्होंने केवट से निवेदन कियालेकिन उन्हीं के भक्त केवट ने प्रथम दृष्ट्या उनका अनुरोध स्वीकार नहीं किया

माँगी नाव न केवटु आना

 कहई तुम्हार मरमु मैं जाना

चरन कमल रज कहुं सबु कहई

 मानुष कराने मूरि कछु अहई

केवट ने कहा -आपकी चरण धूल से तो अहल्या पत्थर से स्त्री हो गई थी। फिर मेरी नाव तो काठ की है एवं मेरी आजीविका का एकमात्र सहारा ते। यदि यह स़्त्री हो गई, तो मैं जीवन निर्वाह कैसे करूँगा। प्रसंग बड़ा ही मार्मिक था। केवट ने आगे कहा कि जब तक मैं आपके पैर पखार न लूँनाव नहीं लाऊँगा। राम बात का मर्म समझ गए और सेवक की बात शिरोधार्य करते हुए बोले -

कृपासिंधु बोले मुसुकाई

 सोई करूँ जेहिं तव नाव न जाई

बेगि आनु जब पाय पखारू

होत विलंबु उतारहि पारू

बात का महत्त्व देखिए जिनके स्मरण मात्र से मनुष्य भवसागर पार उतर जाते ,  जिन्होंने 3 पग में पूरे ब्रह्मांड को नाप लिया थावे ही भगवान केवट जैसे साधारण मनुष्य को निहोरा कर रहे हैं और अब आगे देखिए, यह सुन केवट के मन में कैसे आनंद की हिलोरें आकार लेने लगीं और वह चरण पखारने लगा।

 

अति आनंद उमगि अनुरागा

चरण सरोज पखारन लागा

पार उतारकर केवट ने दण्डवत्प्रणाम किया और जब राम की इच्छा जान सीता ने उतराई स्वरूप रत्नजड़ित अँगूठी देने का प्रयास किया, तो उसने नम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया और कहा - आज मेरी दरिद्रता की आग बुझ गई है। मैंने बहुत समय तब मजदूरी की और विधाता ने आज भरपूर मजदूरी दे दी है। हे नाथ आपकी कृपा से अब मुझे कुछ नहीं चाहिए।

अब कछु नाथ न चाहिअ मोरे

 दीनदयाल अनुग्रह चौरे

फिरती बार मोहिजो देबा

 सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा

मित्रो! यही है दया का सच्चा स्वरूप, जो प्रेम में परिवर्तित हो सारे भेद मिटा देता है। आदमी के मन में गहरे उतरकर दिल को दिल से जोड़ देता है। न कोई लेन देनन कोई स्वार्थ केवल निर्मलनिस्वार्थ प्रेम। सारे धर्मों का यही संदेश है

अत्याचारी कंस बन मत ले सबकी जान

दया करे गरीब पर वो सच्चा बलवान

-0-v.joshi415@gmail.com

Friday, April 5, 2024

1408-महाभारत : ‘मैं’ से मुक्ति

                   - विजय जोशी, पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल

 


       पौराणिक प्रसंग किसी भी धर्म ग्रंथ में समाहित हों, उनकी प्रासंगिकता स्वयं सिद्ध है। इनमें एक ओर जहाँ सरल भाषा में अपनी बात आम जन तक पहुँचाने का भाव होता है, वहीं दूसरी ओर मंतव्य भी। इस दौर में कहें, तो शाब्दिक प्रसंग हार्डवेयर तथा संदेश सॉफ्टवेयर। सो एक मित्र से प्राप्त अद्भुत विचार।

        महाभारत ग्रंथ से सभी परिचित हैं। यह मात्र दो परिवार या दो विरोधी संस्कृतियों के टकराव में सत्य के विजय का मंत्र ही नहीं, अपितु अंतस् के युद्ध का सफ़रनामा भी है।  आइए इसे पात्रों के माध्यम से समझा जाए : 

 1-धृतराष्ट्र: यह है हमारा मस्तिष्क, जो सारी सूचनाओं को संगृहीत कर सोच को कार्यरूप में परिवर्तित करता है। निर्भर हम पर करता है कि अपने विवेक से सही निर्णय लेते हैं या स्वार्थनिहित फैसला।


 2 संजय: हमारे वे मित्र या शुभचिंतक, जो ठकुर सुहाती से ऊपर उठकर न केवल हमें सच्चाई से अवगत कराते हैं, बल्कि सही मार्गदर्शन भी प्रदान करते हैं।

 3- कौरव: ये हैं अंतस्में उभरने वाली मोह माया रूपी वे भावनाएं जो हमें पथभ्रष्ट करने का पूरा प्रयास करती हैं। तुच्छ स्वार्थ या बाहरी आकर्षण की परत हमारी बुद्धि के कुमार्ग से कदमताल का प्रयोजन बनती हैं।

 4- शकुनि: वे अवसरवादी मित्र, जो हमें कुमार्ग की ओर ढकेलने में कोई कसर नहीं छोड़ते। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी।

 5- पांडव: ये हैं हमारी पाँच इंद्रियाँ  नेत्र, नाक, जीभ, कान और त्वचा यानी दृश्य, सुगंध, स्वाद, श्रवण और स्पर्श, जो हमारी सहायता करती हैं नीर क्षीर उर्फ़ दूध और पानी को अलग कर निर्णय पर पहुँचने में। ईश्वर का अद्भुत उपहार बशर्ते हम इनका सदुपयोग कर सकें।

 6- द्रौपदी: हमारी नैसर्गिक प्रतिभा, इच्छा, चाह या जुनून, जो हमारी 5 इंद्रियों वाली क्षमता को एक सूत्र में बाँधकर उद्देश्य प्राप्ति के साथ ही जीवन में आनंद का प्रयोजन भी बनती है। एक बात और कि यह कौरवी माया जाल से लड़ने हेतु हमारे संकल्प का सूत्र भी बनती है।  

 7- कृष्ण: तो फिर कृष्ण क्या हैं। यह है हमारी आंतरिक चेतना< जो आजीवन हमारी सारथी बनकर साथ निभाती है। इसकी आवाज सुन कार्य करना हमारा नैतिक दायित्व और सफलता की कुंजी है।

 8- कर्ण: परिवार के अग्रज होने के बावजूद राज्याश्रय के लोभ में कुमार्ग पथिक बन काल कवलित हो गए। यही है हमारा अहंका<र जो पद, प्रतिष्ठा, पैसे की चमक मिलते ही सिर चढ़कर बोलने लगता है। कुपथ की ओर धकेल देता है। 

        अहंकार हमारे सारे गुण निगल जाता है। ईश्वर से विमुख कर देता है। कहा ही गया है EGO यानी Edging God Out हृदय में कोई एक ही रह सकता है। अहंकार आते ही ईश्वर बाहर। यदि आपने इसे समाप्त नहीं किया, तो यह आपको समाप्त कर देगा।

         कुल मिलाकर भगवान श्रीकृष्ण ने द्वापर में महाभारत के माध्यम से उद्देश्यपूर्ण जीवन जीने का एक अद्भुत संदेश दिया है। यह केवल एक युद्ध नहीं, बल्कि अनाचार, अत्याचार के विरुद्ध एक जंग है, जो हमारे चेतन और अवचेतन मन दोनों के सार्थक जीवन जीने का प्रयोजन है। अब यह हम पर निर्भर है कि हम कौन सा मार्ग अंगीकार करें।

अहंकार में तीनों गए धन, वैभव और वंश ।

ना मानो तो देख लो< रावण, कौरव, कंस।

 

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Friday, October 5, 2018

आज का चिन्तन

बीमार सोच

रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

        बीमार सोच को ढोने वाले लोग हर क्षेत्र में मिल जाएँगे ।सुबह जागकर अख़बार में चोरी ,डकैती ,हत्या ,लूट ,दुर्घटना की ख़बर तलाश करना ; दिन भर ऐसी ख़बरों के वर्णन में अपनी सारी ताकत झोंक देना कुछ लोगों का शगल बन गया है ।दूसरी श्रेणी में वे भले लोग हैं ;जो बुरी ख़बर को ‘आज का चिन्तन’ की सुबह ही सुबह परिचितों को सुनाएँगे ।उस समय उनकी मुखमुद्रा एक सुलझे हुए सन्त जैसी लगेगी ।वे अपनी बात के कुप्रभाव से पूरी तरह निरीह रूप से अनजान होते हैं ।इसी तरह की नकारात्मक सोच हमारे शिक्षा –जगत् की भी सबसे बड़ी खामी है । ऐसा तभी होता है ;जब व्यक्ति अपने वर्तमान से ऊपर नहीं उठ पाता है ,अपने अतीत से मुक्त नहीं हो पाता है ।आने वाले समय के लिए न योजना बना सकता है ,न उन्हें लागू करने का ख़तरा उठा सकता है ।अपने अतीत के प्रक्षेपण से पूरे भविष्य को आच्छादित करना चाहता है । अपनी नकारात्मक सोच से पूरे विश्व को नरक बनाने का उद्यम ज़रूर कर लेता है ; लेकिन छोटे –से प्रयास से फूल देने वाला का एक पौधा लगाने में अपना अपमान समझने लगता है । ऐसे बीमार लोग इस देश में बहुतायत से पाए जाते हैं । हंगामा और हड़ताल करने में ज़मीन -आसमान के कुलाबे मिला सकते हैं। घण्टों बेकार की बातों पर बहस कर सकते हैं ,कुतर्क की कीचड़ में गोता लगा सकते हैं ;लेकिन सड़क पर घायल पड़े आदमी को अस्पताल नहीं पहुँचा सकते ।ज्ञान को कैद करके कालकोठरी में डाल सकते हैं,उजाले के पैरों में बेड़ी पहना सकते हैं ;परन्तु उजाले को बेरोकटोक बाहर नही जाने देंगे ।इन बीमार सोच वाले लोगों ने भावी पीढ़ी का जीवन बहुत कठिन कर दिया है। निरन्तर नया सोचने वालों और करने वालों को कदम –कदम पर प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है अपनी कुण्ठा को छात्रों पर लादना कायरता ही नहीं वरन् अपने सामाजिक दायित्वों की उपेक्षा है ।इसका कुप्रभाव निकट भविष्य में शिक्षा-जगत को प्रभावित किए बिना नही रहेगा ।
         बीमार सोच वाले लोग हमारे किशोरों को क्या देंगे ? हताशा निराशा और कुण्ठा के सिवाय शायद ही कुछ दे पाएँ । यदि हमें इनका भविष्य बचाना है तो सकारात्मक सोच को बढ़ावा देना पड़ेगा ।प्रयास करना होगा कि स्वस्थ मानसिकता वाले लोग ही शिक्षा के क्षेत्र में आएँ । युवा पीढ़ी के सामने सबसे बड़ा संकट आदर्श का है । शिक्षक अगर उनका आदर्श बनने में असमर्थ है तो फिर इस दायित्व को कौन सँभालेगा ? संभवत कोई नहीं ।आस्था और निर्माण की विचारधारा रखने वाले लोग भारत के भविष्य का निर्माण करने के लिए आगे आएँ
 ;तभी यह नई पीढ़ी सही दिशा में आगे बढ़ सकेगी । निदा फाज़ली के शब्दों में कहें तो यह समीचीन होगा -
‘घर से मस्ज़िद है बहुत दूर तो चलों यूँ कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए ।’

Monday, March 12, 2018

805


गायत्री

[गायत्री हरियाणा साहित्य अकादमी की परिष्कार शाला की प्रबुद्ध विद्यार्थी रही है]
1- महिलाओं की स्थिति( चिन्तन)
महिलाओं की स्थिति को लेकर एक दिन तो काफ़ी हंगामा होता हैं।जहाँ देखो वहाँ औरतो का ही ज़िक्र होता हैं।बड़े बड़े लोग टी.वी.चैनलों पर आते हैं औऱ पूरा दिन काफ़ी ज़ोर ज़ोर -शोर से महिलाओं के अधिकारों और इज्जत की बात करते हैं। फिर कुछ दिनों बाद वही लोग महिलाओं के साथ अभद्र व्यवहार या टिप्पणी करते हुए पाएँ जाते है। वे क्यों भूल जाते है कि कल आप भरी पंचायत में महिलाओं की पैरवी कर रहे थे। उनको देखकर तो ऐसा लगता है ,जैसे वे आठ मार्च का बुखार था और अगले दिन पहले जैसा हो जाता हैं।                                         
मुझे एक बात समझ में नहीं आती कि सरकार महिलाओं के लिए इतने कानून बनाती हैं। नए -नए कार्यक्रम चलाती हैं ,फिर भी लोगों औऱ सरकार को यह क्यों दिखाई नहीं देता कि मीडिया के माध्यम से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग किया जा रहा है। मीडिया जिसे समाज का आईना कहा जाता हैं,जिसके द्वारा जन जागरण किया जाता है। आज वहीं अपने कर्तव्य से भटक चुका है। आज ऐसे-ऐसे कार्यक्रमों को दिखाया जाता हैं, जिसे देखकर हर कोई प्रभावित होता हैं । कहने का अभिप्राय यह है कि सीरियल के द्वारा ऐसी  तकनीकों को दिखाया जाता है कि वे अच्छे भले इंसान को भी अपराधी बना सकती कुछ ऐसे शो है, जो लोगो को अच्छी चेतना जगाने की बजाय उन्हें गुमराह करने व ग़ुनाह करने की नई-नई तरकीबें सुझाती हैं।जिस जे द्वारा मीडिया का ग़लत तरीके से प्रयोग किया जा रहा है।ऐसा नहीं होना चाहिए क्योंकि मीडिया समाज में नेकी का स्रोत है ना कि अपराधों का।                                    
हिंदुस्तान के अंदर या यूँ कहें कि यहाँ के लोगों के द्वारा फ़िल्म निर्माता निर्देशक औऱ गायकों को बहुत मान सम्मान दिया जाता हैं ।यहाँ के जन-जन पर फिल्मों औऱ गानों की झलक देखने को मिलती हैं; किन्तु क्या आप ने कभी सोचा है कि इन गानों की शब्दावली औरतों को क्या इज्जत देती हैं।लोग बड़े चाव से इन गानों को सुनते औऱ गुनगुनाते हैं ।क्या कभी इन शब्दों के भाव को समझा है।गानों में लड़कियों के लिए आइटम ,पटाका, पटोला जैसे शब्दों का प्रयोग बड़े अभिमान के साथ होता है।तो  आप ज़रा सोचिए कि क्या ऐसे सम्बोधन  महिलाओं की गरिमा मैं चार-चाँद लगाते हैं? ये शब्द ऐसे हैं जो स्त्री को एक वस्तु के रूप में देखते हैं।ह मे इस बात के लिए आवाज़ उठानी चाहिए।इस पर कानून बनाया जाना चाहिए ताकि भविष्य में इन शब्दों का चलन बंद हो। जो इस प्रकार के तुच्छ मानसिकता का प्रदर्शन करें ,तो उसे अपराध माना जाए।अतः महिलाओं को एक आकर्षण औऱ उपभोग की वस्तु न समझकर उसके उत्थान के लिए आगें आना चाहिए ताकि वो भी एक खुशहाल जीवन जी सके।।              
  -0-
2- बहुत याद आती है
बहुत याद आती है तेरी माँ,
जब कोई कहता है मेरी माँ , मेरी माँ
मेरा भी दिल करता है , उड़कर पल में तेरे पास चली  आऊँ मैं 
तेरे सीने से लिपट जाऊँ मैं
बहुत याद आती है तेरी माँ
जब खाना- खाने आऊँ मैं
जी करता है तेरे आँचल में छुप जाऊँ मैं
तेरी ममता के पल्लू में कहीं खो जाऊँ मैं
बहुत याद आती हैं तेरी माँ
जब कॉलेज से घर आऊँ मैं मेरी आँखें बस तुम्हे ही ढूँढे और ढूँढती ही रह जाए माँ
न पाकर के तुम्हे वहाँ मेरे कदम वही रुक जाए माँ
तेरी याद में माँ हर पल बिता जाए  तेरे बिन जिंदगी भी रूखी नज़र आये माँ
 बहुत याद आती है तेरी माँ
-0-भट्टू कलाँ , जिला -फ़तेहाबाद -125052