पथ के साथी

Tuesday, April 28, 2015

चढ़तीं–उतरतीं वेदनाएँ



नवगीत
रमेश गौतम

आज भी गोदान जैसी हैं
किसानों की कथाएँ ।

चार बीघा खेत
उल्कापात, ओले, आगपानी
है खुले आकाश में
अस्तित्व की पूरी कहानी
अन्नदाता की हथेली
हैं यथावत् आपदाएँ ।

क्या करें मौसम हठीला
रंगदारी माँगता है
खंज़रों की नोक पर
फसलें सुनहरी टाँगता है
लूट कर सारा खजाना
ले गइ निर्मम हवाएँ ।


अब व्यथा इनकी कहें क्या
रह गए हैं प्राण आधे
राजरजवाड़े सभी
बैठें हुए हैं मौन साधे
दफ्तरों की सीढि़याँ
चढ़तींउतरतीं वेदनाएँ ।

खेल  क्षतिपूर्ति का अब
बाजीगरों ने मूँछ ऐंठी
कृषकों की कुण्डली में
लालफीता शाही बैठी
आँकड़ों की खीर चखतीं
खूब जनधन योजनाएँ ।

एक मुठ्ठी सांत्वना को
फिर यहाँ होरी भटकता
हार कर फिर मौन हाहाकार
सूली पर लटकता
लापता हैं राजधानी से
सभी संवेदनाएँ
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रमेश गौतम
रंगभूमि 78बी, संजय नगर, बरेली।

( चित्र:गूगल से साभार)

Wednesday, April 22, 2015

कविता



ख़लील ज़िब्रान
(अनुवाद : सुकेश साहनी )

एथेन्स के राजमार्ग पर दो कवियों की भेंट हो गई। मिलकर दोनों को खुशी हुई।
एक कवि ने दूसरे से पूछा, ‘‘इधर नया क्या लिखा है?’’
दूसरे कवि ने गर्व से कहा, ‘‘मैंने अभी हाल ही में एक कविता लिखी है जो मेरी सभी रचनाओं में श्रेष्ठ है। मुझे लगता है यह ग्रीक में लिखी गई सभी कविताओं से भी श्रेष्ठ है। यह कविता मेरे गुरू की स्तुति में लिखी गई है।’’
तब उसने अपने कुरते से पाण्डुलिपि निकालते हुए कहा, ‘‘अरे देखो, यह तो मेरे पास ही है। इसे सुनकर मुझे प्रसन्नता होगी। चलो, उस पेड़ की छाया में बैठते हैं।’’
कवि ने अपनी रचना पढ़ी, जो काफी लम्बी थी।
दूसरे कवि ने नम्रतापूर्वक प्रतिक्रिया दी, ‘‘वह महान रचना है, कालजयी रचना है। इससे आपको बहुत प्रसिद्ध मिलेगी।’’
पहले कवि ने सपाट स्वर में पूछा, ‘‘तुम आजकल क्या लिख रहे हो?’’
दूसरे ने उत्तर दिया, ‘‘बहुत थोड़ा लिखा है मैंने। केवल आठ लाइनेंएक बाग में खेल रहे बच्चे की स्मृति में।’’ उसने अपनी रचना सुनाई।
पहले कवि ने कहा, ‘‘ठीक ही है, ज्यादा बुरी तो नहींे है।’’
आज दो हज़ार वर्ष बीत जाने पर भी उस कवि की आठ पंक्तियाँ प्रत्येक भाषा में बड़े प्रेम से पढ़ी जाती हैं।
दूसरे कवि की रचना शताब्दियों से पुस्तकालयों और विद्वानों की अलमारियों में सुरक्षित अवश्य रही है पर उसे कोई नहीं पढ़ता।

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Saturday, April 18, 2015

ख़ुद से इतना प्यार न कर



ग़ज़ल
1-ख़ुद से इतना प्यार न कर
     -अनिता ललित 

ख़्वाबों को अख़बार न कर
ख़ुद से इतना प्यार न कर।

ये जीवन इक बाज़ी है
रिश्तों को हथियार न कर।

महँगी माना खुशियाँ हैं
अश्कों का व्यापार न कर।

फूल मिलें जब राहों में
काँटों को बेज़ार न कर ।  

अरमानों की महफ़िल में
ग़म का तू इज़हार न कर ।

लेकर बातों के ख़ंजर
अपनों पर तू वार न कर।

 साँस-किराया देता चल
कम-ज़्यादा तक़रार न कर।
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2-भोर ठिकाना आना है 
        -अनिता ललित 

तूफ़ानों की बस्ती में, गहरे तम घिर आएँगे 
डरकर तुम मत रुक जाना, भोर-ठिकाना आना है।

भरम मिटाकर हर दिल से, खोई आस जगाएँगे
नाउम्मीदी हारेगी,  दिल को बस समझाना है ।

धुन्ध भरी इन राहों में, तनिक न हम घबराएँगे
काँटे भी देंगे रस्ता , मंज़िल को ग़र पाना है।

कठिन घड़ी में जीवन की, आँसू नहीं गवाएँगे
मन का बाँध गिराना है , आगे बढते जाना है।

नफ़रत लेकर दुनिया में, हासिल क्या कर पाएँगे
प्यार बसा है जिस दिल में, उसके संग ज़माना है।

पर्वत रस्ता रोकेंगे, बादल घिर-घिर आएँगे
चीर समंदर का सीना, नैया पार लगाना है। 

बेग़ानों की बस्ती में, अपने हाथ छुड़ाएँगे
ख़ुद में रख विश्वास सदा, क़िस्मत से लड़ जाना है।
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Wednesday, April 15, 2015

साहित्य और काव्य-भाषा

रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
कविता किसी भी कवि के हृदय की गहन अनुभूति विचारों का मन्थन और कल्पना का अनुरंजन है।कवि का चिन्तन जितना गहन होगा,अनुभूति जितनी सान्द्र होगी ,कल्पना जितनी बहुरंगी होगी, भाषा जितनी ज़मीन से जुड़ी और बहुआयामी होगी , कविता उतनी ही प्रभविष्णु और प्रामाणिक होगी ।भर्तृहरि के वाक्यपदीय के  अनुसार शब्द और वाक्य देशकाल में हैं,जबकि अर्थ देशकाल से परे है ।उन्होंने अपने वाक्यपदीय ग्रन्थ में कहा भी है-
            स्तुतिनिन्दा प्रधानेषु वाक्येष्वर्थो न तादृश:
            पदानां प्रतिभागेन यादृश: परिकल्पयते ॥-2-247
शब्दकोशीय अर्थ की एक सीमा है। जब शब्द का वाक्य में प्रयोग किया जाता है ,तभी उसके अर्थ का निर्धारण होता है । स्तुति या निन्दा प्रधान वाक्यों में अर्थ वह नहीं होता , जो उसका अभिधेय अर्थ है, वह उससे हटकर होता है।वह लक्ष्यार्थ हो या व्यंग्यार्थ हो, परन्तु शब्दकोशीय नहीं होता । क्या जल और पानी समान अर्थ वाले हैं? कदापि नहीं । गंगाजल को गंगापानी नहीं कहा जा सकता । बेशर्म आदमी को आप कह सकते हैं कि उसकी आँखों का पानी ही मर गया । कभी कोई किए–कराए पर पानी फेर देता है और विफलता ही हाथ लगती है। किए –कराए पर जल फेर देना तो होगा नहीं। कभी कोई शर्म के मारे पानी-पानी हो जाता है , जल -जल कभी नहीं होता।गहनों पर सोने-चाँदी का पानी चढ़ाने का काम होता है ,जल चढ़ाने का नहीं। जल चढ़ाने का के साथ एकप्रकार की आस्था जुड़ी है। तेज़ –तर्रार लोग अच्छे-भलों का पानी उतार देते हैं।घड़ों पानी पड़ना ,घड़ों जल पड़ना नहीं हो सकता ।चेहरे की ताज़गी तो आब(पानी ) का तो कहना ही क्या , वह न पानी है और न जल। पानी के और भी बहुत सारे अर्थ प्रचलित हैं। एक पुरानी कहावत है-
                काबुल गए तुरक बन आए , बोलें गिटपिट बानी ।
             आब-आब कह मरे मियाँ जी रखा सिरहाने पानी ॥
एक मियाँ जी काबुल गए थे।लोगों पर रौब जमाने के लिए वहाँ की भाषा के शब्दों का प्रयोग करने लगे । यह प्रयोग उनकी आदत बन गया। बहुत बीमार हो गए।प्यास लगी तो आब-आब चिल्लाते रहे । परिचर्या करने वालों की समझ में नहीं आया कि वे क्या कह रहे हैं ? उनको क्या चाहिए ? प्यास के कारण मर गए ,जबकि उनके सिरहाने पानी रखा हुआ था । बांग्ला में पीने का पानी , पानी न होकर ‘खाबार जोल(जल)’ है तो असमिया में दूध अलग अर्थ में प्रयुक्त होता है। सामान्य दूध के प्रचलन में ‘गौखीर’ ( यानी गाय का क्षीर) है। भैंस वहाँ नज़र ही नहीं आती ।कबीर को हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जी ने भाषा का डिक्टेटर कहा था क्योंकि कबीर ने तो बहुत सीधी बात की है।उन्होंने भाषा को बहता नीर कहा है।जो शब्द प्रयोग में आते हैं , वे ही जीवित रहते हैं । जो प्रयोग में नहीं आते , वे काल के प्रवाह में नहीं टिकते वे भाषा से बाहर हो जाते हैं । भाषा की जीवन्तता का सबसे बड़ा आधार प्रयोग ही है। यदि कोई शब्दकोश खोलकर बैठ जाए और उसमें से शब्द चुन-चुनकर रखता जाए , तो वह काव्यरूप धारण नहीं कर सकता ।
         कवि अपने प्रयोग के माध्यम से सरल से सरल शब्दों को भी अभिमन्त्रित कर देता है। भाषा बहता नीर है ,वह रास्ते में आने वाले कंकड़-पत्थर और रेत को छोड़ता जाता है। भाषा भी यही काम करती है ।प्रयोग के कारण ही शब्द अपने पुराने अर्थ को छोड़कर एकदम नए अर्थ भी ग्रहण कर लेते हैं ।‘साहस’ का अर्थ कभी लूटपाट , हत्या बलात्कार हुआ करता था , आज यह शब्द अर्थ उत्कर्ष के कारण उस अर्थ से कोसों दूर है।दूसरी ओर ‘बज्रबटुक’ , पाखण्ड जैसे अच्छे अर्थ वाले शब्द अपना पुराना अर्थ छोड़कर अर्थ अपकर्ष के कारण अपने दूसरे रूप में प्रयुक्त होने लगे हैं।अच्छा-भला तत्सम ‘भद्र’ शब्द तद्भव रूप धारण करके भद्दा हो गया । आज दोनों अर्थ प्रचलन में हैं।नेताजी जैसा शब्द तो पिछले कुछ दशक में ही अपना गरिमामय अर्थ छोड़ चुका है। तत्सम या तद्भव शब्द की छटा अलग दिखाई देती है । मृत्तिका शब्द को ही लीजिए।इससे मिट्टी और माटी तद्भव रूप बने हैं। जहाँ माटी या मिट्टी शब्द आएगा वहाँ मृत्तिका विकल्प के रूप में आ जाए , सम्भव नहीं।इन वाक्यों को देखिए-
1-माटी का चोला माटी में मिल जाएगा।
2-अरे भाई , पुरानी बातों पर मिट्टी डालो। अब मिलकर काम करो।
3-माटी कहे कुम्हार से , तू क्या रौंदे मोय ।
4-तुम ठहरे मिट्टी के माधो, लोग तुम्हें उल्लू बनाते रहेंगे
यहाँ अगर कोई मृत्तिका का प्रयोग करेगा , तो उसे अनाड़ी ही कहा जाएगा ।किसी भी भाषा या बोली के शब्दों की ताकत तत्सम शब्दों से कई गुना ज़्यादा होती है।लोग टोपी पहनते हैं,यह सम्मान का सूचक भी है , क्योंकि टोपी  उतारने की बात अपमान करना ही है। धूर्त्त लोगों को क्या कहेंगे ! वे अपना उल्लू सीधा करने के लिए न जाने कितने भले लोगों को टोपी पहना देते हैं।यहाँ टोपी पहनाना ठगने के अर्थ में आया है ।
      जो शब्द जनमानस के जितने निकट होते हैं वे उतने ही सशक्त होते हैं। ढाढ़ू –वह ठण्डी बर्फ़ीली हवा ( हिमवात) जो सर्दियों में उत्तर की ओर से हरिद्वार , सहारनपुर के क्षेत्रों की ओर चलती है। इस शब्द का कोई और पर्याय नहीं हो सकता । नदी आम बोलचाल का सबका जाना –पहचाना साधारण-सा शब्द है । अब यह कवि पर निर्भर है कि वह उसका प्रयोग किस रूप में करता है । जीवन भी नदी है और सुख-दु:ख उसके दो किनारे हैं। नदी प्रेयसी है, जो अपने प्रियतम समुद्र से मिलने को आतुर होकर बहती है । नदी दु:ख से भी भरी है , जिसको हमें तैरना है । नदी प्रेम की भी है , जिसमे जो डूब गया , वह सफल हो गया वह तैर गया । कहीं कबीर उसे ज्ञान रूप भी मानता है – मैं बपुरा डूबन –डरा , रहा किनारे बैठ । जो डूबने से डरेगा , वह किनारे पर बैठा रहेगा , कुछ नहीं पाएगा।भाषा संस्कार से मिलती है, संस्कार -जन्मजात और अर्जित दोनों होते हैं । ये सुनार से गहनों की तरह उधार में नहीं मिलते ।उधार के गहने तन की शोभा बन सकते हैं,वाणी की नहीं।दूसरे सप्तक के प्रथम कवि भवानी प्रसाद मिश्र ने अपने वक्तव्य में कहा था-
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,
और उसके बाद भी , हमसे बड़ा तू दिख।
इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि आप सरल भाषा के नाम पर हर जगह सब्जी मण्डी की भाषा ही प्रयोग में लाएँ । साहित्यकार होने के नाते साथ ही इतना भी तय करना पड़ेगा  कि आप पाठक तक क्या पहुँचाना चाहते हैं- भाव , विचार , कल्पना आदि या शब्दजाल ! शब्दजाल के लिए काव्य की दुर्गति करना ज़रूरी नहीं । इसके लिए आप नहीं , शब्दकोश पर्याप्त है।नामी गिरामी बदमाश जब पुलिस की पकड़ में आया तो दारोगा ने सिपाहियों से कहा-
‘देखो भाई ! ये महापुरुष आज हमारे मेहमान हैं । इनके सत्कार में कोई कमी नहीं रखना।’ ।
अब आप समझ सकते हैं कि महापुरुष , मेहमान से कौन-सा अर्थ ध्वनित होता है और सत्कार का मतलब क्या है ? जिसका सत्कार हुआ होगा , उसको क्या-क्या झेलना पड़ा होगा !

तत्सम-तद्भव शब्द के बारे में कुछ शिक्षकों को बहुत भ्रान्ति है। संस्कृत के या किसी भाषा के शब्द से बार-बार प्रयोग के कारण उसी शब्द का  जो बदला हुआ रूप है, वह तद्भव कहा जाएगा। उदाहरण के लिए संस्कृत के दो शब्द हैं –पर्वत और पाषाण । पर्वत का तद्भव परबत/ पर्बत प्रचलन में है, पाषाण के दो तद्भव हैं- 1-पाहन , 2 –पहाड़ । कुछ लोग व्युत्पत्ति पर ध्यान न देकर पर्वत का तद्भव रूप  ‘ पाहन’ शब्द को समझ लेते हैं। कुछ शब्द ऐसे हैं , जो तत्सम और तद्भव दोनों रूपों में अलग-अलग अर्थ में प्रयुक्त होते रहते हैं। जैसे –पत्र । पत्र –चिट्ठी के रूप में भी प्रच्लित है  और इसके दो तद्भव रूप –पता और पत्ता दोनों रूप में प्रचलित है।

हाइकु, ताँका, सेदोका, माहिया आदि रचनाओं के सन्दर्भ में भी मैं इस ओर ध्यान दिलाना चाहूँगा कि भाव, कल्पना आदि के अनुकूल भाषा का प्रयोग करें ।कोल्हू के बैल की तरह शब्दों के सीमित दायरे में न घूमें। भाषा हमारे आसपास पल्लवित –पुष्पित हो रही है, उस पर ध्यान दें। उसकी धड़कन सुने और पढ़ें । कुछ वर्ष पहले हमने (डॉ भावना कुँअर , डॉ हरदीप सन्धु और मैंने) यादों पर आधारित हाइकु –संग्रह सम्पादित किया था।हमने संग्रह का नामकरण ‘यादों के पाखी’ साथी रचनाकारों को भेज दिया; क्योंकि हमने अपने एक हाइकु में उसका प्रयोग किया था । फिर क्या था , कुछ साथियों ने जो हाइकु लिखे, उनमें बलपूर्वक ‘यादों के पाखी’ ठूँस दिया । परिणामस्वरूप हमें इस तरह के बहुत सारे निर्जीव हाइकु हटाने पड़े । सरलता के नाम पर इस तरह के प्रयोग की ‘अति’ से बचें । कुछ साथी जब निर्धारित विषय पर हाइकु, ताँका , सेदोका या माहिया भेजते हैं, तो सभी में भाव और भाषा के दोहराव के शिकार हो जाते हैं । किसी वैद्य ने नहीं बताया है कि हमें एक ही विषय को रौंदकर गीत , ग़ज़ल , हाइकु आदि सभी लिखकर शूरमा बनना है ।जब दोहराव होने लगे तो कुछ समय के लिए लेखनी को आराम दीजिए । इसके बाद जो लिखा जाएगा , वह प्रभावशाली होगा । आज इतना ही बाकी फिर कभी !
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Tuesday, April 7, 2015

काव्य-गंगा




1-मेरे नए दोहे

डासुधेश
1
काम धाम औ नाम संग , खूब कमाया दा
पर इतिहासों में मिला , नहीं तुम्हारा नाम ।
1
नाच कूदकर हर जगह खूब किया है का
बहते पानी पर लिखा , मिला तुम्हारा नाम ।
3
झूठमूठ कोई कहे , आप बनें अध्यक्ष
क़ब्र तोड़ कर प्रकटते , महामहिम प्रत्यक्ष ।
4
चाँद चाहिये दिवस में ,इतनी ऊँची चाह
चमचे भी तैयार हैं, करें वाह जी वाह ।
5
भैया यह जनतन्त्र है, धनवानों का खेल
तन्त्र शेष पर जन कहाँ, उसकी छूटी रेल ।
6
अपना ही तो राज है, चले गये अंग्रेज़
ये देसी अंग्रेज़ पर, उन से निकले तेज़ ।
7
नौकर शाही मस्त है , अंग्रेज़ी में बोल
चाहे कितना पीट ले ,तू हिन्दी का ढोल ।
8
जिनके पेट भरे हुए ,उन्हें चाहिये और
ख़ाली पेटों को मगर ,कहीं नहीं है ठौर ।
9
खा-पीकर न डकारते, ऐसे भोजन भट्ट
चारा,चीनी, तेल सब, कर जाते है चट्ट ।
10
तन्त्र तुम्हारे पास है, माउथ पीस है पास
इसीलिए वह रात- दिन ,करता है बकवास ।
11
सत्य हमारे पास है, रखलें अपना झूठ
मेरे कर तलवार है, तू रख ले यह मूठ ।
12
काले धन के घड़े में, इक दिन होगा छेद
कोई दवा न चलेगी ,काला होय  सफ़ेद ।

डा सुधेश -314 सरल अपार्टमैन्ट्स , द्वारिका, सैक्टर 10
नई दिल्ली-110075
फ़ोन 09350974120
ईमेल drsudhesh@gmailcom
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2- डॉ.कविता भट्ट

तेरे नैनो की गंगा में
तम था,  विरह था, विवशताएँ थी,
सोचा था जीवन अमावस हुआ
बरसों से मन में रखा था छिपाकर,
अब जा के कहने का साहस हुआ
तेरे नैनो की गंगा मे डुबकी लगाकर,
काया कंचन हुई मन पारस हुआ
हम पर थे ताने- कि भिक्षुक हैं हम,
तेरे दर पर झुके जीवन राजस हुआ
कुछ बूँदे जो निर्मल प्रेम की पा ली,
अभिसिंचित हुए जेठ पावस हुआ
क्यों कुम्भ जायें, क्यों गंगा नहाएँ,
आज सवेरे ही तट से पग वापस हुआ
पतित पावनी तो भीतर बहे है,
अद्भुत प्रेम गोते, आदर्श-मानस हुआ
मुझे डूबना है नहीं तैरना है,
अब पार जाने में भारी आलस हुआ
सुनते थे, प्रेम है वासना तनों की ,
मेरा तन-मन तो प्रेम में तापस हुआ
तेरा नाम जपते रहे हम निरंतर,
तू शंकर मेरा, घर पावन-बनारस हुआ

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 दर्शनशास्त्र विभाग,हे 0न0 ब0 गढ़वाल विश्वविद्यालय
श्रीनगर गढ़वाल उत्तराखंड