पथ के साथी

Tuesday, April 28, 2015

चढ़तीं–उतरतीं वेदनाएँ



नवगीत
रमेश गौतम

आज भी गोदान जैसी हैं
किसानों की कथाएँ ।

चार बीघा खेत
उल्कापात, ओले, आगपानी
है खुले आकाश में
अस्तित्व की पूरी कहानी
अन्नदाता की हथेली
हैं यथावत् आपदाएँ ।

क्या करें मौसम हठीला
रंगदारी माँगता है
खंज़रों की नोक पर
फसलें सुनहरी टाँगता है
लूट कर सारा खजाना
ले गइ निर्मम हवाएँ ।


अब व्यथा इनकी कहें क्या
रह गए हैं प्राण आधे
राजरजवाड़े सभी
बैठें हुए हैं मौन साधे
दफ्तरों की सीढि़याँ
चढ़तींउतरतीं वेदनाएँ ।

खेल  क्षतिपूर्ति का अब
बाजीगरों ने मूँछ ऐंठी
कृषकों की कुण्डली में
लालफीता शाही बैठी
आँकड़ों की खीर चखतीं
खूब जनधन योजनाएँ ।

एक मुठ्ठी सांत्वना को
फिर यहाँ होरी भटकता
हार कर फिर मौन हाहाकार
सूली पर लटकता
लापता हैं राजधानी से
सभी संवेदनाएँ
-0-
रमेश गौतम
रंगभूमि 78बी, संजय नगर, बरेली।

( चित्र:गूगल से साभार)