पथ के साथी

Thursday, May 30, 2024

1420-28 अक्टूबर, 2015 की वो रात

 

विजय विक्रान्त  (कैनेडा )

कभी- कभी जीवन में कुछ ऐसी घटनाएँ घट जाती हैं, जिनको समझना इंसानी समझ से बाहर होता है। मेरे साथ भी ऐसा जो कुछ हुआ, उसका अभी तक मेरे पास कोई जवाब नहीं है।


बात 24 जनवरी 2013 की है। उस दिन मेरा 75वाँ जन्मदिन था। पता नहीं, रह- रहकर उस दिन मुझे क्यों अपने पिताजी की बहुत याद आ रही थी? सोच रहा था कि काश वो आज यहाँ होते तो, कितना अच्छा होता। समय के बीतने का पता ही नहीं चला; क्योंकि उन्हें गुज़रे हुए 35 साल से भी ऊपर हो चुके थे। मृत्यु के समय पिताजी की उम्र 77 साल की थी। अचानक न जाने बैठै- बिठाए मेरे दिमाग़ में क्यों यह कीड़ा घर कर गया कि मैं भी 77 साल से ज़्यादा नहीं  जिऊँगा। बात आई- गई हो गई; लेकिन इस दिमाग़ी कीड़े ने परेशान करना शुरू कर दिया। न सोचते हु भी यह ख़्याल बार- बार आने लगा। कई बार तो ऐसा लगने लगा था कि  यह  बात सच होकर ही रहेगी। श्रीमती जी और बच्चों के आगे इस फ़ितूर के ग़ल्ती से मुँह से निकलने की देर नहीं कि मेरी शामत आ जाती थी। हालाँकि दो साल बाद मेरा 77 वाँ जन्मदिन बिना किसी विघ्न के बीत गया, फिर भी न जाने क्यों,  यह  ख़्याल मेरा पीछा ही नहीं छोड़ रहा था।

इन्हीं दिनों मुझे ऐसा महसूस होने लगा था कि चलते समय मैं अपना सन्तुलन खो रहा हूँ। समय के साथ- साथ  यह  परेशानी और भी बढ़ती चली गई। डक्टरों से काफ़ी परामर्श करने के बाद आख़िर में हम दोनों ने  यह  फ़ैसला किया कि अब मेरे लि सर्वाइकल सरजरी कराना बहुत ज़रूरी हो गया है। भली भाँति जानते हु भी कि  यह  सरजरी बहुत ख़तरनाक है; मेरे पास इस के अलावा कोई और चारा भी तो नहीं था। आख़िर 27 अक्टूबर को मेरी सर्ज़री का दिन निश्चित हो गया। जैसे-जैसे 27 अक्टूबर का दिन पास आने लगा वैसे- वैसे ही मेरे मन में रह- रह के  यह  विचार मंडराना शुरू हो गया कि कहीं  यह  सरजरी मेरे मन में जो खटका लगा था उसकी पूर्ति का माध्यम तो नहीं है।

27 अक्टूबर को मेरी सर्जरी हो गई। सर्जरी के थोड़ी देर बाद डॉक्टर ‘मारमर’ ने मेरी श्रीमती जी को आकर समाचार दिया कि ऑपरेशन ठीक हो गया है और चिंता करने की कोई बात नहीं है। उसके बाद मुझे रिकवरी रूम में जाँच के लिए रखा गया। जैसा मुझे बाद में बताया गया था, दो या तीन घण्टे बाद मुझे रिकवरी रूम से हटाकर अस्पताल की चौथी मंज़िल पर ले जाया गया था। उस समय आस्पताल में मुझे अपने बारे में कुछ होश नहीं था; क्योंकि मुझे हर प्रकार की नींद की और दर्द कम करने की दवाइयाँ दे- देकर मेरी तकलीफ़ को कम करने की कोशिश जारी थी। 28 अक्टूबर को भी वही हाल था। हो सकता है कि कुछ समय के लिए थोड़ा बहुत होश ज़रूर आया होगा; लेकिन उसके बाद फिर वही मदहोशी का आलम। शाम होने पर मैं कहने को तो सो गया; लेकिन मैं ही जानता हूँ कि दर्द के मारे मैं कितना तड़प रहा था। दर्द मेरा इतना असहनीय था कि बताना बहुत मुश्किल था। बार- बार मुझे  यह  ख्याल आ रहा था कि कहीं  यह  सब मित्रों और परिवार के लोगों से आख़िरी मुलाकात का वक्त तो नहीं आ गया है।

अचानक मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मेरे कमरे में कोई और भी है। ग़ौर से देखा तो सामने पिताजी खड़े थे। थोड़ा और नज़दीक से देखा, तो अपनी वही काले रंग की अचकन पहने मुझे देखकर मुस्करा रहे हैं। देखने में वही सुन्दर रोबीला चेहरा। शीघ्र ही वो मेरे बिस्तर पर आकर बैठ गए। कहा कुछ नहीं, बस मेरी ओर देखते रहे। थोड़ी देर बाद मेरे सिर पर प्यार भरा हाथ रखकर पूछा-‘‘बहुत दर्द हो रहा है क्या?’’। उन्हें देखकर मैं भौंचक्का सा हो गया फिर भी जैसे- तैसे हिम्मत करके मैंने मुँह खोलकर धीमे से कहा-‘‘पिताजी, आप यहाँ कैसे? चलो अच्छा हुआ आप आ गए। देखो, अब  यह  दर्द सहा नहीं जाता। अब आप आ ही गए हैं, तो मैं आपके साथ ही चलूँगा। इसी दिन का तो इन्तज़ार था मुझे बहुत दिनों से। आप एकदम बिल्कुल सही समय पर मुझे लेने आ गए हैं। अब देरी किस बात की है। चलो, बस जल्दी से चलो और मुझे इस घोर पीड़ा से छुटकारा दिला दो।’’

मेरा इतना कहना था कि वो मेरे और पास आकर सिर पर प्यार से हाथ फेरकर धीरे से बोले। बेटा, ये क्या बेकार की बातें कर रहे हो तुम? ज़रा से दर्द से घबरा गए।  तुम्हारी  यह  तकलीफ़ कोई बड़ी तकलीफ़ नहीं है। कुछ ही दिन की तो बात है,  सब ठीक हो जाएगा। याद करो वो 1969 में दिल्ली के सफ़दरगंज हस्पताल का 48 नम्बर कमरा, जहाँ तुम इस से भी अधिक पीड़ा  में पड़े हुए थे और मैंने इसी तरह तुम्हारे सिर पर प्यार का हाथ रख कर पूछा था- बहुत दर्द हो रहा है क्या?”?         ‘‘वह1969 की तकलीफ़ तो इस तकलीफ़ से भी कहीं ज़्यादा भयंकर थी। बुद्ध जयन्न्ती पार्क में तुम्हें जो चोट लगी थी, उससे निकलते हुए तुमको तकरीबन 9- 10 महीने लग गए थे। यह  तकलीफ़ तो उस तकलीफ़ के आगे कुछ भी नहीं है। फिर  यह  कोई चोट नहीं है। यहाँ तो तुम्हारी एक छोटी- सी परेशानी को डॉक्टरों ने दूर किया है। फ़िक्र मत करो, हिम्मत न हारो। तुम बहुत जल्द ठीक हो जाओगे। और हाँ, अपने दिमाग से इस 77 साल में मरने के फ़ितूर को निकाल कर फेंक दो और पूरा ध्यान अपने ठीक होने में लगाओ।

          विजय बेटा, सब से पहले तो तुम अपने दिमाग से मेरे साथ चलने का ख़्याल छोड़ दो। आज मैं तुम से कुछ और बातें भी करने आया हूँ। मुझे अच्छी तरह से मालूम है कि तुम्हें और मेरी पुत्रवधू को इस बात का बहुत दुख़ है कि हम सब एक साथ इकठ्ठे हो कर नहीं रह पाए। यही नहीं, तुम दोनों को इस बात का भी बहुत मलाल है कि एक बेटा होते हुए भी, तुम दोनो हमें भारत में अकेला छोड़कर कैनेडा आकर बस गए। कई बार तो मैंने तुम दोनों को यह कहते हुए भी सुना है कि इस बात को लेकर तुम्हारे परिवार के ऊपर हम दोनों का शाप है। अरे पगले, कौन माँ बाप अपनी औलाद का बुरा चाहेगा और शाप देगा? हम तुम्हें शाप प देंगे,  यह  तुम ने सोचा भी कैसे? हमारा आशीर्वाद तो तुम सब के लिए सदा रहेगा। जहाँ तक रही हमारे कैनेडा आने की बात, सो तुम दोनों ने तो अपनी तरफ़ से हमें कैनेडा बुलाने की पूरी कोशिश की थी। मैं तो आने तो तैयार था; लेकिन जब तुम्हारी मातीजी ने साफ़ इंकार कर दिया, तो मैं क्या कर सकता था। उन्हें अकेले छोड़कर तो मेरा यहाँ आकर रहना नामुमकिन था।

बेटा, आज मैं वो एक बात दोहराना चाहता हूँ, जो शायद हो सकता है तुमको कभी बताई हो। तुम्हारे पैदा होने से पहले तुम्हारे एक भाई और एक बहन को हम ने बचपन में खो दिया था। जब तुम पैदा हुए, तो मैंने तुम्हारी जन्मपत्री बनवाई और तुम्हारे भविष्य के बारे में पण्डित श्याम मुरारी जी से पूछा। सब देखकर पण्डित जी ने कहा कि लालाजी, और तो सब ठीक है ,लेकिन आपको इस बेटे का सुख नहीं मिलेगा। यह सुनकर मैं बिल्कुल चुप हो गया। किसी से कुछ नहीं कहा; लेकिन मन में एक डर सा बैठ गया कि शायद तुम भी, अपने बहन और भाई की तरह, हमें हमेशा के लिए छोड़कर चले तो नहीं जाओगे। जब भी तुम हमारी आँखों से दूर होते थे, मुझे इस बात का हमेशा डर रहता था। तुम्हारा कैनेडा जाना पण्डित जी की इस बात की पुष्टि करता है कि हमारी किस्मत में आपस में एक दूसरे का सुख नहीं था। जब भाग्य में यही लिखा है, तो फिर इस में तुम दोनों का क्या कसूर है? भूल जाओ इन सब बेकार की बातों को।

जाने से पहले एक बात तुम्हारे दिमाग से और निकाल देना चाहता हूँ, जिसे सोच सोचकर तुम अपने आपको रात- दिन कोसते रहते हो। याद करो 10 नवम्बर 1977 की सुबह और दिल्ली  में सर गंगाराम हस्पताल का कमरा। तुम्हें यह भी याद होगा कि मेरे एक फेफड़े के पंचर होने के कारण मुझे अम्बाला से दिल्ली इलाज के लिए लाया गया था  और मेरी तबियत अधिक ख़राब होने के कारण एक सप्ताह पहले तुम ईरान से मुझे मिलने आए थे।  बेटा, तुम 9 नवम्बर की रात को मेरे साथ रहे थे। 10 की सुबह को मैंने ही तुम्हें तुम्हारी बहन विजय लक्ष्मी के घर जाकर आराम करने को कहा था। यह सिर्फ़ इसलिए कि तुम  सारी रात सोए नहीं थे और बहुत थके हुए थे। तुम्हें भेजने के थोड़ी देर बाद ही मुझे ऐसा एहसास हुआ कि शायद वो मेरी बहुत बड़ी ग़लती थी; क्योंकि मुझे कुछ ऐसा महसूस होने लगा था कि मेरा अब आख़री समय नज़दीक आ गया है और हुआ भी वही। मैंने चोला तो छोड़ दिया; लेकिन ध्यान मेरा तुम्हारे में ही अटका रहा। बाद में जब तुम सब घर वालों को मेरे जाने की ख़बर मिली, तो सब से अधिक दुख तुम्हें इस बात का हुआ कि आखिरी समय में तुम मुझको अकेला छोड़कर विजय लक्ष्मी के घर क्यों चले गए था। मुझे देह छोड़े हुए 38 साल हो गए हैं; लेकिन इस बात को लेकर तुम अब भी कभी- कभी बहुत परेशान हो जाते हो।  बेटा, इसे भाग्य का चक्कर नहीं कहेंगे तो फिर और क्या कहेंगे। ऐसा ही लिखा था, ऐसा ही होना था और ऐसा ही हुआ। चाहता तो मैं भी यही था कि तुम्हारी गोद में साँस छोड़ूँ; लेकिन विधाता को तो कुछ और ही मंज़ूर था। हम दोनों आपस में बाप- बेटे होते हुए  भी एक दूसरे को सुख नहीं दे पाए। हमें इसी में शान्ति मिलनी चाहिए कि जितना भी हमारा साथ रहा वो प्रेमपूर्ण रहा।

बेटा, जाते- जाते बस यही कहूँगा कि तुम्हारी  यह  तकलीफ़ बहुत जल्दी ठीक हो जाएगी। अब किसी भी बात को लेकर अपने मन को और दुखी मत करो और जितनी भी ज़िन्दगी है, उसे अपने परिवार के साथ हँसी ख़ुशी में बिताओ।

इसके बाद मुझे ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरा माथा चूमा हो और मैं एकाएक किसी गहरी नींद से जाग गया हूँ। दर्द का अभी भी वही हाल था। फिर भी ऐसा महसूस होने लगा कि शायद कुछ कम हो रहा है। यह दवाइयों का असर था या पिताजी के मेरा माथा चूमने का, मुझे इस प्रश्न के उत्तर की तलाश है।

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