1-माँ ऐसी ही होती है !
-अनिता ललित
सालों-साल गुज़र जाते हैं, माँ सोती नहीं ! बच्चों को पालने-पोसने में वह ख़ुद को भूल जाती है। फिर अचानक एक दिन उसे महसूस होता है कि उसकी चाल धीमी हो गयी है, घुटने दुखने लगे हैं, वह अक्सर चीज़ें रखकर भूलने लगी है, जल्दी थकने भी लगी है,और उसे महसूस होता है कि नींद उसकी आँखों का पता ही भूल चुकी है। बुनाई-कढ़ाई करते समय अब वह सुई में धागे से और गिरे हुए फंदे से काफ़ी देर तक जूझती रहती है। वह आवाज़ से कम और हाव-भाव से बातें समझने की कोशिश करने लगी है और उसकी प्रतिक्रिया भी धीमी पड़ने लगी है। तब वह देखती है कि उसके चेहरे पर उभरी लकीरों के नीचे दबे हुए पिछले कई वर्ष अपनी कहानी कहने लगे हैं, और पाती है, कि उसके बच्चों का क़द अब उसके आँचल से बड़ा होने लगा है। उसके बच्चे अब उसके पास ज़्यादा देर तक नहीं रुकना चाहते, ज़िन्दगी की रेस में दौड़ते हुए उनके क़दमों के पास इतना वक़्त नहीं है कि वे उसके पास कुछ देर को ठहर सकें, उसकी बातों को सुन सकें, समझ सकें, उसकी छोटी-छोटी, सिमटी हुई ख़्वाहिशों को पूरा कर सकें। अपने कोमल कन्धों और एक पैर से फिरकी की तरह नाचते हुए, पूरे परिवार की इच्छाओं को पूरा करने वाली माँ अब आत्मग्लानि से भर उठती है ! बच्चों के आँसू पोछने वाली, उनका मनोबल बढ़ाने वाली माँ अब बात-बात पर बच्चों के सामने अपनी बेबसी पर रो पड़ती है। फिर भी वह ढलती उम्र से उपजी अपनी अस्वथता को अपनी कमी समझकर उसी को कोसती है अपने बच्चों की स्वार्थपरता को नहीं! -माँ ऐसी ही होती है !
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2-माँ तो हल्दी-चन्दन है!
-अनिता ललित
बातें उसकी फूलों जैसी, दिल ममता का आँगन है।
हर दर्द की दवा वो मीठी, माँ तो हल्दी-चंदन है।
स्वर्ग ज़मीं पर उतरा, ऐसा माँ का रूप सलोना है
सजदे में झुक जाए ख़ुदा भी , माँ की बोली वंदन है ।
माँ की बातें सीधी-सादी, चाहत उसकी भोली है
घर-बच्चों की हर ख़्वाहिश पर, करती कुर्बां जीवन है ।
अपने आँचल को फैलाकर , जीवन को महकाती है
शोलों पर वो चलती रहती, आँखों में भर सावन है ।
उसके सपनों की लाली से, खिला सुबह का सूरज है
साँझ ढले क्यों भूली हँसना, क्यों खोया-खोया मन है ?
ढलती उम्र सुनाती क़िस्से, माँ की पेशानी पर है
पपड़ी से झरते रिश्ते, बचती यादों की सीलन है ।
क़िस्मत वाला वो दर होगा ,जिस घर माँ खुश रहती है
नूर ख़ुदा का उस पर बरसे, वो पावन वृन्दावन है।
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-अनिता ललित
माँ-नारी का सबसे ख़ूबसूरत व वंदनीय रूप! माँ शब्द में ही ऊँचाई और गहराई दोनों
का आभास एक साथ होता है। उसका हर बोल मंत्रोच्चारण होता है और उसकी हर बात में जीवन-सार छिपा होता है! उसकी बोली से शहद व आँखों से ममता का
सागर छलकता रहता है। माँ केवल देना जानती है। वह किसी काम
के लिए 'ना' नहीं कहती, वह कभी थकती नहीं। सवेरे सबसे पहले उठती है और रात में सबके बाद सोती है। उसके चेहरे पर कभी थकान नहीं दिखती।
सबको अपनी चीज़ सही ठिकाने पर मिलती मगर माँ कभी एक जगह पर बैठी नहीं दिखती। कोमलतम
भावनाओं से लिपटी माँ के सामने कड़ी से कड़ी, बड़ी से बड़ी,
कठिन से कठिन समस्या भी अपना अस्तित्व खो देती है-माँ के पास हर
मुश्किल की चाभी होती है। कपड़ों की सीवन में वह चुपचाप अपने ज़ख्मों को भी सी देती
है, अपने आँसुओं के लेप से दिलों में पड़ी दरारों को भर देती
है।
बच्चे के कोख़ में आने के
साथ ही माँ उसकी सुरक्षा में जुट जाती है। बच्चों की देखभाल करना माँ का काम नहीं
वरन उसका स्वभाव होता है। बच्चों को क्या चाहिए यह बच्चों से पहले उसको पता चल
जाता है। बच्चे अगर कष्ट में हों या बीमार हों, तो माँ को चैन नहीं आता, रातों को जाग-जागकर वह उनकी
देखभाल करती है। भयंकर तूफ़ान हो या कड़ी धूप, माँ का आँचल
बच्चों को अपने साये में सुरक्षित रखता है, उन्हें सुक़ून
देता है। सबके ताने सुनती है, मगर बच्चों के लालन-पालन में
कोई कोताही नहीं बरतती, कोई समझौता नहीं करती।सालों-साल गुज़र जाते हैं, माँ सोती नहीं ! बच्चों को पालने-पोसने में वह ख़ुद को भूल जाती है। फिर अचानक एक दिन उसे महसूस होता है कि उसकी चाल धीमी हो गयी है, घुटने दुखने लगे हैं, वह अक्सर चीज़ें रखकर भूलने लगी है, जल्दी थकने भी लगी है,और उसे महसूस होता है कि नींद उसकी आँखों का पता ही भूल चुकी है। बुनाई-कढ़ाई करते समय अब वह सुई में धागे से और गिरे हुए फंदे से काफ़ी देर तक जूझती रहती है। वह आवाज़ से कम और हाव-भाव से बातें समझने की कोशिश करने लगी है और उसकी प्रतिक्रिया भी धीमी पड़ने लगी है। तब वह देखती है कि उसके चेहरे पर उभरी लकीरों के नीचे दबे हुए पिछले कई वर्ष अपनी कहानी कहने लगे हैं, और पाती है, कि उसके बच्चों का क़द अब उसके आँचल से बड़ा होने लगा है। उसके बच्चे अब उसके पास ज़्यादा देर तक नहीं रुकना चाहते, ज़िन्दगी की रेस में दौड़ते हुए उनके क़दमों के पास इतना वक़्त नहीं है कि वे उसके पास कुछ देर को ठहर सकें, उसकी बातों को सुन सकें, समझ सकें, उसकी छोटी-छोटी, सिमटी हुई ख़्वाहिशों को पूरा कर सकें। अपने कोमल कन्धों और एक पैर से फिरकी की तरह नाचते हुए, पूरे परिवार की इच्छाओं को पूरा करने वाली माँ अब आत्मग्लानि से भर उठती है ! बच्चों के आँसू पोछने वाली, उनका मनोबल बढ़ाने वाली माँ अब बात-बात पर बच्चों के सामने अपनी बेबसी पर रो पड़ती है। फिर भी वह ढलती उम्र से उपजी अपनी अस्वथता को अपनी कमी समझकर उसी को कोसती है अपने बच्चों की स्वार्थपरता को नहीं! -माँ ऐसी ही होती है !
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2-माँ तो हल्दी-चन्दन है!
-अनिता ललित
बातें उसकी फूलों जैसी, दिल ममता का आँगन है।
हर दर्द की दवा वो मीठी, माँ तो हल्दी-चंदन है।
स्वर्ग ज़मीं पर उतरा, ऐसा माँ का रूप सलोना है
सजदे में झुक जाए ख़ुदा भी , माँ की बोली वंदन है ।
माँ की बातें सीधी-सादी, चाहत उसकी भोली है
घर-बच्चों की हर ख़्वाहिश पर, करती कुर्बां जीवन है ।
अपने आँचल को फैलाकर , जीवन को महकाती है
शोलों पर वो चलती रहती, आँखों में भर सावन है ।
उसके सपनों की लाली से, खिला सुबह का सूरज है
साँझ ढले क्यों भूली हँसना, क्यों खोया-खोया मन है ?
ढलती उम्र सुनाती क़िस्से, माँ की पेशानी पर है
पपड़ी से झरते रिश्ते, बचती यादों की सीलन है ।
क़िस्मत वाला वो दर होगा ,जिस घर माँ खुश रहती है
नूर ख़ुदा का उस पर बरसे, वो पावन वृन्दावन है।
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3-मेरी
माँ – पुष्पा मेहरा
आकाश का विस्तार माँ
तेज लिये सूर्य का
चन्द्र का मधु हास माँ !
आँधियों में उड़ती धूल बीच
नन्ही बूँदों की लड़ियाँ सरीखी
ममता की शीतल धार माँ ,
धरा सी उदार माँ ।
ज्ञान की संवाहिका
कर्तव्य की है धुरी
मन के स्नेहिल गोंद से
जोड़ती रिश्तों की लड़ी
दूसरों के दुःख –दर्द को
निज मान कर
ज़ख्म में मरहम सरीखी,
मान में मनुहार माँ ।
खुद खरहरी खाट लेती
बच्चों को गद्दों पर सुलाती
स्वयं भूखे पेट सोती
बच्चों को भर पेट खिलाती
आह की इक आवाज सुन
रात भर है जागती ,
वक्त का हर वार सहती
बुराइयों से दूर रहती
सुहृद जनों की भीड़ में
तन्हाइयों से घिरी हुई
मन में सारे राज़ रखती
सागर की गहन गहराई माँ ।
रातरानी की कोमल कली सी
भरपूर खिलने को आकुल
फूल के समरूप
पंखुरी-पंखुरी से उड़ती
अदृश्य-निर्बंध सुरभि का
मधुर- कोमल अहसास माँ ।
मेरे रक्त की हर बूँद माँ
ध्यान-जप,पूजा-अर्चना
मन की वन्दना सारी हमारी -
माँ ही माँ ...... माँ ही माँ ।
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Pushpa .mehra @gmail .com
सुन्दर कविताएँ
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ReplyDeleteढलती उम्र सुनाती क़िस्से, माँ की पेशानी पर है
पपड़ी से झरते रिश्ते, बचती यादों की सीलन है ।
और
रातरानी की कोमल कली सी
भरपूर खिलने को आकुल
फूल के समरूप
पंखुरी-पंखुरी से उड़ती
अनीता जी ,पुष्पा जी मर्मस्पर्शी रचनाएँ .. दोनों को हार्दिक बधाई !!