पथ के साथी

Monday, January 26, 2009

खून के रिश्ते ।


खून ही पीते रहे ये खून के रिश्ते ।
सदा ही रीते रहे ये खून के रिश्ते ॥

जोंक भी जीती सदा सबको पता कैसे ।
इसी तरह जीते रहे ये खून के रिश्ते ॥

घाव जो खाए भला कब ठीक वे होते ।
शूल से सीते रहे ये खून के रिश्ते ॥

वे समझते हैं हमें रोना नहीं आता ।
अश्क में बीते रहे ये खून के रिश्ते ॥

-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

Wednesday, January 21, 2009

छन्द कहीं नहीं गया था

छन्द कहीं नहीं गया था
छन्द कहीं नहीं गया था ,जो वापस आ गया हो । हाँ इतना ज़रूर हुआ है कि छन्दहीनता (छन्दमुक्तता नहीं)ने हिन्दी पाठकों के मन में कविता के प्रति वितृष्णा भर दी है ।स्थापित कवि अपनी घटिया कविता(बकवास कहना ज़्यादा सार्थक होगा)से कविता के सही पाठकों को दूर खदेड़ने का काम कर रहे हैं। नई दुनिया की 18 जनवरी की पत्रिका देख लीजिए ।इस अंक में अरुण कमल जी की एक अच्छी कविता 'इच्छा थी' देखी जा सकती है ।इसी पृष्ठ पर दूसरी कविता ? 'आराम कुर्सी' भी है ,जिसे पढ़कर लगता है कि कवि के पास लिखने के लिए कुछ नहीं बचा है। अरुण कमल की ज़गह कोई और नाम होता तो कविता रद्दी की टोकरी में मिलती । पाठ्यक्रम में भी इस तरह की कविताएँ बहुत मिल जाएँगी ;जिन्होंने कविता के पाठकों को बहुत दूर कर दिया है । अच्छी कविता में लय स्वत: आती है, चाहे वह छन्दयुक्त हो चाहे छन्दमुक्त ।छन्द के नाम पर भी तुक्कड़ कवि बहुत कुछ ईंट-पत्थर पाठकों के सिर पर पटकते रहते हैं। बेहूदा लिखने वालों ने प्रकाशकों को भी इसीलिए कविता की पुस्तकों के प्रकाशन से डरा दिया है । आज भी उतम रचनाकारों की कमी नहीं ;पर उन्हें उनके अनुरूप स्थान नहीं मिल पाता है ।
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

Saturday, January 10, 2009

अधिकारियों की हड़ताल

रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
अधिकारियों की एक हड़ताल ने पूरे देश को बन्धक बना लिया है । करोड़ों लोगों को हैरान और परेशान करने वाले ये अधिकारी लगता है देश और जनता दोनों दे भी ऊपर हो गए हैं । ऑटोचालक से लेकर दफ़्तर जाने वाले सभी कर्मचारी परेशान ,एम्बुलेंस से अस्पताल जाने वाले परेशान : अधिकारियों का वेतन जो नहीं बढ़ा । इस तरह के आतंकवादी अधिकारी अपने वेतन को बढ़ाने के लिए पूरे देश को ही ब्लैकमेल करने पर तुले हैं ।इन्हें जो भी दण्ड दिया जाए वह कम है । क्या इन्हें रोटी के लाले पड़ गए हैं ? यदि नहीं तो इन्हें किसी की रोटी से खेलने का अधिकार किसने दिया ? क्या ये उन रोटी से वंचित रहने वाले ऑटोचालकों या अन्य कर्मियों की रोज़ी का खमियाज़ा भुगतेंगे ? दफ़्तरों के नुकसान का हिसाब-किताब देंगे ? नहीं ,तो क्यों नहीं ?इन्हें इनका प्रस्तावित वेतन देकर देश की सीमा पर भेज देना चाहिए तब इनको मालूम होगा कि नौकरी क्या चीज़ है । वातानुकूलित कक्ष में बैठकर ऐसा मज़ाक करना आसान लगता है । इन अड़ियल अधिकारियों के साथ वही व्यवहार होना चाहिए जो आतंकवादियों के साथ होता है ,क्योंकि इनका व्यवहार उनसे भी बदतर है ।
इस देश में ऐसे भी अधिकारी हैं ,जिनकी केवल सालाना वेतन-वृद्धि 36 लाख तक या ज़्यादा भी है ; जबकि भारत के महामहिम राष्ट्रपति जी का वार्षिक वेतन भी इतना नहीं है । ।आखिर जनता के पैसे पर ये लोग कब तक मौज़ करते रहेंगे ?

भाषा के बल पर उन्नति

रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
अंग्रेज़ी को राजनीति का पर्याय समझने वाले लोग आम आदमी से कितनी दूर हैं ,इसके लिए प्रमाण की ज़रूरत नहीं । किसी भाषा विशेष को जानने से राजनीति या कोई चीज़ खुद चलकर नहीं आ जाएगी ।पुराने कांग्रेसी कामराज कौन सी भाषा पढ़े थे ?इन्दिरा जी ,शास्त्री जी और बाजपेयी जी किस भाषा के कारण जनमानस से जुड़े रहे ? लालू जी और राबड़ी को मत भूल जाइये । इनकी ठेठ भाषा कितनी ताकतवर है ? सब जानते हैं ।एक अरब से अधिक संख्या वाला देश अगर अंग्रेजी के बिना बेवकूफ़ माना जा रहा है तो यह गरीब लोगों के पैसे पर आराम करने वालों की गहरी साजिश है ।राजभाषा हिन्दी में काम करने वालों के रास्ते में कौन रुकावट डाल रहा है ? विदेशी शक्तियाँ नही, वरन् वे भारतीय हैं ;जो मन से आज भी गुलामी ओढ़े हुए हैं । अंग्रेज़ी की खाल उतार देंगे तो असलियत का पता चल जाएगा । चुनाव के समय अंग्रेज़ी बोलकर वोट माँगे और जीत जाए ;है कोई ऐसा सूरमा ? यदि नहीं है तो इस देश के लोगों को बेवकूफ़ मत बनाइए । मोर्चे पर छाती खोलकर गोलियाँ खाने वाले कौन हैं? वे भारतीय भाषाओं की माटी से जुड़े लोग हैं ।जिसे अपनी भाषा( किसी भी भारतीय भाषा पर ) गर्व नहीं है ,उसे क्या कहा जाए ? जो जितनी भाषा जान ले उतना ही अच्छा है ;लेकिन हिन्दी जाननेवाला होने से वह दोयम दर्ज़े का नागरिक नहीं हो जाएगा । भाषा की हीन ग्रन्थि का ऐसा प्रभाव केवल भारत में ही देखने को मिलता है । रूस ,चीन ,जापान ,फ़्रांस आदि देशों ने किस भाषा के बल पर उन्नति की ?अमेरिका की अंग्रेज़ी का प्रतिफल इराक ,अफ़गानिस्तान तथा अन्य देश ही नहीं भुगत रहे हैं ,अमेरिका वाले भी भुगत रहे हैं । जितनी चाहे अंग्रेज़ी झाड़ो ,बुश जैसे महानुभाव अपनी बिल्ली का नाम ‘इण्डिया’ रखने से बाज नहीं आएँगे । हम अभी इतने गए-बीते नहीं हो पाए कि अपने कुत्ते का नाम बुश रखने लगें ।