पथ के साथी

Sunday, March 2, 2008

मृगजल

अध्ययन-कक्ष
लघुकथा की स्थापना के लिए संगोष्ठियाँ करने और ‘कथानामा’ जैसे संकलन निकालने वाले कथाकार मनीषराय का लघुकथा–संग्रह ‘अनावरण’ तो 1980 में ही छप गया था, लेकिन उनके जोड़ीदार कथाकार–पत्रकार बलराम का लघुकथा–संग्रह ‘मृगजल’ 1990 में जाकर प्रकाशित हुआ, जबकि उनका कहानी–संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है और एक उपन्यास भी। कहानी समीक्षा की भी एक किताब छपी है और यात्रावृत्तों का संग्रह भी। कहने का मतलब ये कि साहित्य की अनेक विधाओं में सक्रिय बलराम लघुकथाएँ भी लिखनेवाले बहुमुखी प्रतिभासंपन्न ऐसे रचनाकार हैं, जिन्होंने लघुकथा को स्थापित करने में भी महती भूमिका निभाई है। ‘हिन्दी लघुकथा कोश’, ‘भारतीय लघुकथा कोश’ , ‘विश्व लघुकथा कोश’ और ‘बीसवीं सदी की लघुकथाएँ’ का संपादन कर उसके राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय आयाम उजागर किए हैं। बलराम का एक लघुकथा–संग्रह ‘मृगजल’ भी छपा है, जिसमें उनकी तीस लघुकथाएँ संगृहीत हैं। साथ में है ‘लघुकथा के बारे में’ नाम से एक आलोचनात्मक लेख भी। ‘मृगजल’ की लघुकथाओं को दो खंडों में बाँटा गया है। पहले खंड में अपेक्षाकृत ज्यादा प्रभावशाली लघुकथाएँ हैं। इस खंड की लघुकथा ‘पाप और प्रायश्चित’ में दिखाया गा है कि धार्मिक संस्थाएँ अनाचार के लिए सहज स्वीकृति देने में तो संकोच नहीं करतीं, लेकिन प्यार को आश्रय देने में ऐसे पाप–कर्म की कल्पना कर लेती हैं, जिसका प्रायश्चित्त संभव नहीं है। प्यार और मातृत्व की उष्मा धर्म की शिला को पिघलाने में असमर्थ है। इस तरह ‘पाप और प्रायश्चित्त’ में कर्मकांड के धर्म बनने की कुरूपता दर्शाई गई है। ‘आदमी’ लघुकथा में अंतरिक्ष मानव का विस्मित होना कम बेधक नहीं है। आदमी के लिए आदमी होने का दावा करना सबसे खतरनाक है, क्योंकि संकीर्ण और अनुदार दृष्टिकोण ही आज के मानव जीवन के पर्याय बन गए हैं।
‘माध्यम’ में फाके के दिनों में लड़नेवाला दिनुवा है, जो चौधरी की तिकड़मों के आगे लाचार होकर उसके यहाँ मजदूरी पर जाने लगता है। दिनुवा जैसे लोग यदि सक्षम होकर पेट भरने लगेंगे तो चौधराहट किसके बलबूते पर की जाएगी? ‘मृगजल’ में सिर्फ़ बनियान और लुंगी पहनकर कड़ाके की ठंड का प्रतिरोध करता किसन का पिता। किसन के भाइयों की हालत भी अभाव की कथा कहती है। माँ–बहनों मजदूरी करती हैं। सुखमय भविष्य की कल्पना में पूरा परिवार अभाव एवं भटकाव का जीवन जी रहा है। उधर किसन अपने चार साल में एम.ए.फाइनल तक पहुँच पाया है। संघर्षरत परिवार की खून–पसीने की कमाई फिल्म और फैशन में फूँक रहा है। न जाने ऐसे कितने किसन स्पप्नजीवी परिवारों को चूस रहे हैं। ग्रामीण परिवेश को जड़ों से उखड़ी गुमराह पीढ़ी के भरोसे, भावी सुखों का रेत महल निर्मित करने वालों की करुण स्थिति को बलराम ने मर्मस्पर्शी भाषा में अभिव्यक्त किया है। यह लघुकथा ग्रामीण परिवेश को बारीकी से उकेरने में सक्षम है। समर्पण और सहिष्णुता के बावजूद युगों–युगों से नारी आरोपों का केंद्र बनी रही है। ‘बहू का सवाल’ की कम्युआइन भाभी पति की नामर्दी को छिपाए रखती हैं। वह चुप्पी तभी तोड़ती हैं, जब काका कम्युआइन भाभी को बाँझ समझने की गलतफहमी के शिकार होकर अपने बेटे की दूसरी शादी की बात करने लगते हैं। ‘बहू का सवाल’ हर युग के समाज के लिए अनुत्तरित ही रहा है।
‘गंदी बात’ बाल मनोविज्ञान की समस्या पर लिखी सशक्त लघुकथा है। निर्मल और वीणा जैसे अभिभावक बच्चे की मानसिक गुत्थियों को समझ पाने में असमर्थ हैं। मुसाफिर उनके बच्चे को आलू–बुखारा दे देता है, लेकिन वीणा आचार्य बच्चे को ‘‘छि :,गंदी बात, कोई किसी से ऐसे चीजें लेता है?’’ कहकर टोक देती हैं। इस टोक की परिणति आगे चलकर बच्चे को गिरी खरीदकर देने से होती है। बच्चा उस गिरी को ‘‘छि :, गंदी बात, रास्ते में कोई कुछ खाता है?’’ कहकर फेंक देता है। बाल–हृदय की गहराइयों को जाने बिना उसका मानसिक विकास नहीं किया जा सकता। गोष्ठियों–सेमिनारों में जाकर रोब झाड़नेवाले अपने गिरेबान में झाँककर देखने का कष्ट कब करते हैं?
‘मृगजल’ के दूसरे खंड में बलराम की व्यंग्य लघुकथाएँ विभिन्न तेवरों के साथ उपस्थित हैं। ‘सिद्धि’ में आरोपित विचारधारा पर कटाक्ष है। इस लघुकथा में लेखक संघों की कपटनीति का पर्दापाश किया गया है। आम आदमी को चर्चा के केंद्र में रखने वाले, आम आदमी की ही उपेक्षा करते हैं। इनके लिए आम आदमी ‘वाग्जाल’ तक ही महदूद है। व्यावहारिक जीवन में उसका कोई स्थान नहीं है। ‘खाली पेट’ में उसी आम आदमी को हाशिए पर खिसका दिया जाता है। लघुकथाओं में मिथक का प्रयोग होता रहा है; परंतु अपेक्षित सावधानी नहीं बरती गई हैं बलराम इसके अपवाद हैं। मिथकीय संदर्भों को हानि पहुँचाए बिना इन्होंने कुछ अच्छे प्रयोग करके आधुनिक जीवन की विवशताओं को उजागर किया है। ‘गुरुभक्ति’ और ‘महाभारत’ लघुकथाएँ समसामयिक बदलाव और राजनीतिक पतनशील को सफलतापूर्वक विश्लेषित करती हैं। अधिकतर लघुकथाओं में व्यंग्य सन्निहित है। प्रथम खंड की रचनाओं में व्यंग्य अधिक धारदार है। ‘आदमी,’ ‘बहू का सवाल’, ‘बेटी की समझ’, ‘पाप और प्रायश्चित्त’, ‘गंदी बात’ जैसी लघुकथाओं में व्यंग्य अंतर्धारा के रूप में समाया हुआ है। ‘अपने लोग’ में अपनत्व का दिखावा करने वालों के बौनेपन एवं बेगानेपन की कलाई खोली गई है। ‘विविधा’ में ‘टेढ़ी खीर’ का प्रसंग सर्वविदित है। ‘नेकी’ में रोचकता का गुण विद्यमान है, परंतु इसे लघुकथा की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। ‘लघुकथा के बारे में’ नामक आलेख में लघुकथा के संबंध में बलराम ने जहाँ शास्त्रीय पक्षों को छुआ है,वहाँ लघुकथा में उठ रहे अनेके मुद्दों पर भी अपने बेबाक विचार प्रकट किए हैं।
बलराम की भाषा परिमार्जित एवं सशक्त है। शिष्ट भाषा लेखकीय संस्कार के बिना संभव नहीं है। जो लेखक गालियों के बिना अपनी रचनाओं का सृजन नहीं कर पाते, उन्हें बलराम की लघुकथाओं से सीखने में हीन भावना नहीं महसूस करनी चाहिए। इनकी लघुकथाओं में वाक्य–गठन कथा की तीव्रता के अनुसार है। ‘शरणार्थी’, ‘मशाल और मशाल’ इसके सार्थक उदाहरण हैं। विषयवस्तु की नवीनता एवं प्रस्तुति की सजगता ने बलराम की लघुकथाओं को बेहद–बेहद पठनीय बना दिया है।

सृजन सम्मान छत्तीसगढ़





सृजन सम्मान छत्तीसगढ़ का अंतर्राष्ट्रीय लघुकथा सम्मेलन रायपुर में संपन्न।
रायपुर (छत्तीसगढ़)में छठे अखिल भारतीय साहित्य महोत्सव का आयोजन 16–17 फरवरी को दूधाधारी सत्संग भवन में किया गया।
उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता श्री केशरी नाथ त्रिपाठी ने की। इस सत्र के अध्य़क्ष थे श्री कमल किशोर गोयनका। सत्रारम्भ श्री सत्यनारायण शर्मा–अध्यक्ष सृजन–सम्मान के वक्तव्य से हुआ। इस अवसर पर श्री केशरी नाथ त्रिपाठी को राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल सद्भावना सम्मान प्रदान किया गया।
अध्यक्ष मण्डल से श्री मोहनदास नैमिशराय ने कहा –‘मानवता का धर्म सबसे बड़ा धर्म है।
अनुभूति अभिव्यक्ति की सम्पादिका श्रीमती पूर्णिमा वर्मन ने कहा–‘हिन्दी के वैश्वीकरण के लिए वेब से जुड़ने का प्रयास किया जाए।
श्री विश्वनाथ सचदेव (सम्पादक : नवनीत) ने कहा–हिन्दी में लघुकथा की स्थिति ‘लघुमानव’ जैसी है। लघुकथा का अपना महत्त्व है। वह ‘सतसैया के दोहरे’ जैसी है–छोटी–छोटी बातों से बड़े गहरे अर्थ देना।’ श्री केशरी नाथ त्रिपाठी ने कहा–‘लघुकथा के स्वरूप को समझने के लिए वृहद् लक्ष्य सामने रखना पड़ेगा।’ श्री गोयनका ने कहा–‘यह पहला अन्तर्राष्ट्रीय लघुकथा सम्मेलन है। लघुकथा की चिन्ता यह देश और समाज है।
विमर्श (1)सत्र में ‘लघुकथा : विषयवस्तु और शिल्प की सिद्धि’ विषय पर श्री जयप्रकाश मानस ने बीज वक्तव्य प्रस्तुत किया, मानस जी ने कहा–‘लघुकथा गद्य परिवार की सबसे छोटी विधा है, इसलिए लघु है। लघुता उसका शिल्पगत आचरण है–दूब की मानिंद,चन्द्रमा की मानिंद। संक्षिप्तता, व्यंजना इसकी शक्ति है। विषयों का संकट अच्छे लघुकथाकार को कभी नहीं होता।’
लघुकथा की संचेतना एवं अभिव्यक्ति को लेकर अधिकतर वक्ताओं में भ्रम की स्थिति देखी गई,जबकि लगभग दो पहले विभिन्न गोष्ठियों तथा सम्मेलनों में इसका निवारण हो चुका है।
डा. सतीशराज पुष्करणा ने सभी भ्रमों का निराकरण करते हुए कहा–‘रचना अपना आकार स्वयं तय करती है। कालदोष और कालत्व दोष दोनों अलग–अलग हैं। लघुकथा कालत्व दोष स्वीकार नहीं करती। लघुकथा में शीर्षक महत्त्वपूर्ण है। लेखकीय अनुशासन जरूरी है। भाषा का महत्त्व और नियंत्रण और अधिक जरूरी है। श्री नैमिशराय ने कहा–‘लघुकथा समाज को पढ़ने का सशक्त माध्यम है। इसमें कल्पना का महत्त्व अधिक नहीं है।
विमर्श (2) सत्र में ‘लघुकथा का वर्तमान’ विषय पर डॉ. अशोक भाटिया ने बीज वक्तव्य प्रस्तुत किया। श्री भाटिया ने संवेदना से संचालित रचनात्मक विवेक को प्राथमिकता दी। लघुकथा में कुछ अनकहा भी रह जाता है। यह अनकहा लघुकथा को सशक्त बनाता है। इस सत्र में श्याम सखा श्याम, फजल इमाम मलिक, मालती बसंत, अंजली शर्मा, कुमुद अधिकारी, के पी सक्सेना ‘दूसरे’, सुकेश साहनी आदि ने अपने विचार प्रकट किए। मालती बसन्त ने कहा–‘लघुकथा वर्तमान समय का सही दस्तावेज प्रस्तुत करे।’
श्री सुकेश साहनी ने कहा–‘वर्षों पहले का कच्चा माल सही अवसर मिलने पर रचना का स्वरूप धारण करता है। लघुकथा में गम्भीर चिन्तन भी होता है। लेखकीय दायित्व ही विधा को सशक्त बनाता है। लेखक की अनुपस्थिति रहती है। ‘मैं’से तात्पर्य लेखक से नहीं। उन्होंने लघुकथा में कल्पना और फैंटेसी के महत्त्व को रेखाकिंत किया।
अधिकतर वक्ता विषय से हटकर बोले जिसके लिए इस सत्र के संचालक रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ ने कई बार टोका। ‘हिमांशु’ ने रचनाकारों से क्षेत्र की सीमाओं से ऊपर उठकर सोचने के लिए कहा। संकीर्ण सीमाओं में बंधकर वैश्वीकरण की बात नहीं की जा सकती।
लघुकथा गौरव और सृजन श्री सम्मान से अनेकानेक रचनाकारों को सम्मानित किया गया जिनमें प्रमुख हैं–सर्वश्री सतीश राज पुष्करणा, बलराम अग्रवाल, अशोक भाटिया, मालती बसंत, रामकुमार आत्रेय, रोहित कुमार हैप्पी, देवी नागरानी, डॉ.जयशंकर बाबू आदि।
भारती बन्धु के कबीर गायन ने श्रोताओं का प्रभावित किया। आनंदी सहाय शुक्ल –‘तट पर डाल दिया लंगर है।’ हस्ती मल ‘हस्ती’ की ग़जल–‘प्यार का पहला खत लिखने में वक्त तो लगता है। नए परिन्दों को उड़ने में वक्त तो लगता है।’ की पंक्तियाँ श्रोताओं के दिलों को छुए बिना कैसे रहती?
अन्तिम सत्र में लघुकथा पाठ किया गया जिसमें सर्वश्री सुकेश साहनी, श्याम सखा श्याम राम पटवा, आलोक भारती, फजल इमाम मलिक, राम कुमार आत्रेय, शल चन्द्रा, कुमुद अधिकारी, रोहित कुमार हैप्पी, सुमन पोखरेल आदि ने अपनी लघुकथाएँ पढ़ी। सत्र का संचालन सद्भावना दर्पण के सम्पादक श्री गिरीश पंकज ने किया।
17 फरवरी को ‘लघुकथा का भविष्य और भविष्य की लघुकथा’ पर गिरीश पंकज ने बीज वक्तव्य प्रस्तुत किया। पंकज जी ने कहा–‘लघुकथा बदलते हुए युग चरित्र के अनुरूप होनी चाहिए। साहित्य केवल समाज को बदलने का प्रयास भी करता है।
इस सत्र का संचालन डॉ.सतीश राज पुष्करणा ने किया। वक्ता विषय से हटकर बोलने का भरपूर प्रयास करते रहे। पुष्करणा जी ने लगाम लगाने का काफी प्रयास किया। सर्वश्री रामकुमार आत्रेय, बलराम अग्रवाल, डॉ. जयशंकर बाबू, नवल जायसवाल, डॉ.अशोक भाटिया डॉ. हरिवंश अनेजा, डॉ. देवी प्रसाद वर्मा ने अपने विचार प्रस्तुत किए। डा राम निवास मानव ने ‘लघुकथा :बहस के चौराहे पर’ तथा अपनी पुस्तक का जिक्र करते हुए कहा कि शास्त्रीय पक्ष पर एक अर्सा पहले बहुत कुछ कहा जा चुका है ।श्री सुकेश साहनी ने कहा–‘लघुकथा के क्षेत्र में निराशाजनक स्थिति नहीं है। खलील जिब्रान की लघुकथाओं की लघुकथाओं का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि भविष्य की लघुकथा के लिए रचनाकार के लिए किसी तैयारी की जरूरत नहीं है।
मुख्यमंत्री डॉ. रमनसिंह जी ने राष्ट्रीय अलंकरण से विभिन्न रचनाकर्मियों को सम्मानित किया इनमें प्रमुख रहे–सर्वश्री विश्वनाथ सचदेव, कमल किशोर गोयनका, सुकेश साहनी, निर्मल शुक्ल, मोहनदास नैमिशराय, हस्ती मल हस्ती, भैरू लाल गर्ग (सम्पा.बालवाटिका), सुभाष चन्दर, राम निवास मानव, सुश्री पूर्णिमा वर्मन(हिन्दी गौरव सम्मान), रविशंकर श्रीवास्तव आदि।
इस अवसर पर मुख्यमंत्री डा रमन सिंह जी ने विभिन्न कृतियों का विमोचन भी किया गया। इस आयोजन को सफल बनाने में श्री जयप्रकाश मानस की भूमिका सबसे महत्त्वपूर्ण रही है। श्री राम पटवा, श्री राजेन्द्र सोनी हर समय व्यस्त दिखाई दिए। श्री सत्य नारायण शर्मा जी पूरे कार्यक्रम में बने रहे एवं तरोताजा दिखे।
लघुकथा के क्षेत्र में यह सम्मेलन तभी सार्थक माना जाएगा ,जब लेखक वर्तमान समाज की गहनता से पड़ताल करें एवं अपने लेखकीय दायित्व का ईमानदारी से निर्वाह करें। क्षेत्रीयता से ऊपर उठना बहुत ज़रूरी है ।
प्रस्तुति
-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’