पथ के साथी

Wednesday, November 9, 2016

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1-दोहा
मंजूषा मन
1
गौरैया उड़ जा अभी, बुरे हुए हालात।
आ जाना उस रो जब, बीते दुख की रात।।
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2-राख
मंजूषा मन
कुरेदते रहे
मुद्दतों तक
रिश्तों पर जमी राख,
इसी उम्मीद में
कहीं शायद बची होगी
थोड़ी सी आँच
थोड़ी तपन....

जितना टटोला,
जितना खोला
यही पाया
हरबार
कि बुझ चुकी थी आग
लम्बे अरसे से,
बच रही थी
सिर्फ और सिर्फ राख...
जो उड़ -उड़कर
ढकती रही चेहरे के रंग
बनाती रही सब कुछ
बदरंग।

अब जुटाने होंगे
नये साधन
फिर सुलगाने के लिए
एक नई आग।
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3-अपने हिस्से का अमृत
कृष्णा वर्मा

भीतर की बारादरी में भटकती
बेस्वाद कसैली यादों का बोझ
उनींदी रातें खिंडता सुकून
और लम्बी सूनी दोपहरियाँ
आठों पहर - इस बिन्दु के आस-पास
चकरघिन्नी सी घूमती
थक गई है ज़िंदगी - इस व्यवसाय से।
साय की तरह साथ चलती मेरी तन्हाई
और चिन्दी-चिन्दी होता मेरा मन
शून्य में टटोलता है नित कुछ नया
मेरी ग़ैरत मेरी खुद्दारी
फड़फड़ा रही है घायल पंछी -सी
और मैं ! तड़ से पड़े तमाचे के ताप से
तमतमाई गाल- सी खड़ी हूँ स्तब्ध
बहुत हुआ नहीं सह पाऊँगी और
काटनी ही है अब मुझे
अपने संस्कारों से जुड़ी
परम्पराओं की नाल
पैरों की गति के आड़े आती
यह रुनझुनाती साँकलें
नहीं चाहिए मुझे अब जीने को
तुमसे उधार की साँसें
बंद करो अब तुम -खेलना यह चौसर
क्योंकि नहीं लगना मुझे
अब तुम्हारे दाव पर
पाना है मुझे मेरी मुठ्ठी में बंद
अब मेरा अपना सूरज
सिरजना है अब अपने ही ढंग से
मुझे अपना वजूद
आसमाँ की अलगनी पर
टाँग कर अपनी नाम पट्टी
गढ़्नी है मुझे एक अद्भुत पहचान
ताकी लौटा सकूँ तुम्हें सूद समेत
तुम से ही मिली जीवन भर की तमाम पीड़ाएँ
तुम्हारे भ्रम को बल क्या देती रहीं
मेरी मिथ्या मुसकाने
तुम ने तो यूँ समझ लिया कि
वाकिफ हो गए तुम मेरी नस-नस से
सुनो-तुम अपने रुतबे में ऐसे अंधे हुए
यह तक ना जान पाए कि कब
अपने हिस्से का अमृत
पीने की ठान ली मैंने।
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