1-अर्चना राय
1-आखिर...प्रेम
ही क्यों?
अक्सर
ये सुनती हूँ कि
तुम्हारी
कविता का विषय
प्रेम
ही क्यों होता है?
क्या
इससे इतर
कुछ लिखने- कहने नहीं होता ?
कहीं
ऐसा तो नहीं...
कि तुमने प्रसिद्धि
का रास्ता, प्रेम को ही
तो
नहीं मान लिया
तुमने ऐसा
तो नहीं मान लिया है न?
प्रेम
में बसी शीतलता...
समर्पण की भावना ... और
स्नेहिल स्पर्श....
जिसे
पढ़ने वाला
नशेड़ी
की तरह
लती
बनकर..
प्रेम के सिवा
कुछ
और पसंद ही नहीं करता
कहीं तुमने....
इसी
लत को
सफलता
का रास्ता तो
नहीं
मान लिया है ?
तुम
जरा गौर तो करो
थोड़ा-सा तो चिंतन और करो
दुनिया
में क्या कुछ नहीं है
प्रेम
के सिवा...
कभी
नजर उन पर
भी
डालो...
लिखो उन पर भी
जो
आज की सबसे बड़ी
विडंबनाएँ हैं
मैंने
पूछा, कहाँ है कुछ
मुहब्बत
के सिवा..
मैं
देखती हूँ जहाँ- जहाँ
बिखरा
दिखता है
प्रेम
हर उस जगह...
सुनकर
मेरी बात..
जोर
का ठहाका लगा
वे
बोले...
राजनीति
के हथकंडे है...
आतंकवाद
के अंगारे...
गरीबी
के मारे तो
कहीं...
परिवार के दुत्कारे भी हैं
संकट
में धरती है...
मानवता
हर जगह घटती दिखती है...
और
भी बहुत कुछ है...
क्योंकर
इन पर कोई कविता
नहीं
रचती?
....
प्रेम
के छद्म संसार को नहीं
हकीकत
के धरातल को क्यों नहीं रचती
मानकर
उनकी बात
आज
लिखने बैठी हूँ
प्रेम
से अलग विषय
पर
कोई
नई कविता
जैसे
ही प्रेम से नजरें हटाकर
कुछ और विषय
पर
लिखने... दृष्टि उठाती हूँ
न
जाने क्यों... अचानक से
पूरी
सृष्टि ही बंजर
और
बेरंग... सी नजर आई
और
घबराकर आँखें मुँद जाती हैं
अचानक...
मुँदी आँखों मैंने देखा....
सृष्टि ही नहीं स्रष्टा भी
प्रेम
के इर्दगिर्द घूमता नजर
आता
है....
-0-
2-पूनम कतरियार
1-संभावनाएँ
पूरी
शिद्दत से
पैनी
निगाहें मेरी
भेदती
हैं
अमावस
की रात को,
सूक्ष्म
निरीक्षण करती हैं
कि,गर्भ में उसके
कोई
चिह्न तो शेष होगा
पूनम
के आने का?
हां, बहुत पीड़ा है,
बेचैनी
है, कातरता है.
रात
निढाल हैं,
अपनी
ही व्यवस्था से.
परंतु, सुखद लगता है मुझे
कि, रात बाँझ नहीं है !
गर्भ
में उसके
रोशनी
के बीज स्वस्थ हैं
और
समय पर ही
सूरज
निकलेगा.
हमारे
चारों तरफ,
वृक्षों,विटप-वल्लरियों में,
इंसान
के शक्ल के
आतातायियों
तक में,
सुषुप्त
ही सही, संभावनाएँ हैं.
उन्हें
मारने की जितनी कोशिश की हमने
वे
उतने ही सत्तर्क होकर,
अणु-परमाणु
बन, सुरक्षित हो गये हैं
मेरे
भटकाव की परिणति,
आनंदित
हो सबको
यह
बतलाना चाहती हैं
कि संभावनाएँ
खत्म नहीं हुई है!!
-0-
2-लाठी
देखा,
रोती-गिड़गिड़ाती
बेटियाँ,
चूल्हे
में सपने पकाती,
उलाहनों के सालन में लिपटी,
अँधेरें में सहमते हुए,
छिपकलियों
से डरते हुए।
अपने
मृदु-भावों में,
अडिग
हिम्मत भर ली,
धरा
गर्वित हो गई ।
पाँवों में नाल ठोंक,
चल पड़ी पैडल मार,
चिलचिलाते घाम में।
मीलों
लंबी,
लावा
बन पिघली,
कोलतार
वाली सड़क पर
पिता
की लाठी बन।
झुठला
दिया इस कथ्य को,
कि
होतीं हैं बोझ बेटियाँ
पराया
धन है बेटियाँ।
दी
है नई परिभाषा,
कि
महक- सी फैलती,
मन
को समझती,
नाचती-
ठुमकती बेटियाँ।
समय
पड़ने पर,
बन
जातीं हैं हौसला,
देने
लगतीं हैं जिंदगी।
फूल-सी
दिखनेवाली,
बन
जातीं हैं फौलाद।
लाड़
जतलाती,इतराती,
क्षणभर
में, 'ज्योति' बन,
तमस
में
राह दिखाती,
चमचमाने
लगतीं हैं बेटियाँ!
हाँ
नहीं होतीं हैं,
कभी
भी अवांछित बेटियाँ!
-0-
3- सावन
डोरे
लाज की थाम,
करके
सोलह शृंगार,
चल
रही सजनी,
गति
मंथर-मंथर।
देखो, बूँदों का नर्तन,
छमछम,छमछम छम।
कंगना-पायल
खनकें,
खनखन,खनखन खन।
फड़कनें लगीं,
बाईं आँख भी आह!
पिय
यहीं है कहीं,
मेरे
आस- ही-पास।
ढोल
बजाए गगन,
ढमढम,ढमढम ढम।
आया
पावस मास,
ले
मिलन की आस।
घटा
गदराने लगी,
धरा
शरमाने लगी।
हवा
भी हौले-हौले,
देखो, बहकने लगी।
पंखुड़ियाँ
झरने लगीं
झर्
झर्,झरझर झर!
परिमल
उड़ने लगे,
फर्
फर्, फरफर् फर्!
आया
बावला सावन,
चपला
चमकी चम-चम।
घूँघट
डाल री सखि,
आ
रहें हैं सजन!
उड़ी
मेहदीं चहुँ दिशि,
सावन
लाए सजन!!
-0-
4-मुरली
श्याम
तेरी मुरली
तनिक
नहीं है भाती,
आठों
घड़ी, चारों पहर
अधरों
पर तेरे विराजती।
गगरी
भरने जो आज
यमुना
कछार
गई ,
तट
पर बैठी क्षण-भर
पलकें
थोड़ी झपकी थी!
बैरन
मुरलिया इठलाई,
मनमोहक
टेर दी,
सुस्मित
मृदु अधर लेट,
अँगड़ाती
तन-मन जलाती!
कल
जब ओसारे
माखन
मथती थी मैं,
तेरे
लिए किशना सुन
जामन
थी डाल रही,
नवनीत
देख तुम
भोग
के लिए मचलोगे,
इसी
के बहाने फिर
मुरलिया
कहीं धर दोगे।
आँचल
में छुपा लूँगी,
यमुना
में बहा दूँगी,
जाने
कैसे-कैसे मधुर
सपनों
में खोती थी,
प्रतीक्षा
में नैन चतुर
जागती
ना सोती थी,
पलक
झपकी भी न,
लगा
तुम पुकार रहे!
चूनर
सँभालती मैं
बावरी
कपाट खोल
संकोच
में लह गई,
गले
भी न लग पाई
कि
आई भूरी बिल्ली
माखन
पर ललचाई
और
गुलाबी तेरे अधरों पर,
मुरलिया
बैरन मुस्काई!!
-0-
5-विश्वास
हाँ, मुझे है पूर्ण विश्वास,
यह
धरा फिर मुस्कुराएगी।
स्वर्ण-बालियों
से टंकित,
आँचल
अपना ढलकायेगी।
हल जोतेंगे ऋणमुक्त किसान,
धरती
उगलेंगी हीरे- मोती।
कृषक-बालाओं
की स्वर-लहरियाँ,
हवा
में मृदंग बजाएँगी
शरद-पूनम
के सुधा-वर्षण पर,
खीर
महकेगी घर - घर में,
नवोन्मीलित
धान ,
हर
दर पर रहेंगें पड़ें।
धूप
के उज्ज्वल-हास पर,
कलियाँ
शरमा जाएँगीं।
मादक
महुआ फिर महकेगा,
डाल
- डाल गौरैया फुदकेगी।
कोकिल
की पंचम तान,
प्रेमियों
में उत्साह बढ़ाएगी।
टपकेंगी अमिया धरती पर,
रमणियाँ
चटखारें लेंगीं।
मिल-जुलकर
उत्सव होगा,
गलबहियाँ
कर, अंक भरेंगें हम।
होगा
हर रोग-व्याधि का नाश,
वह
दिवस त्वरित आएगा पास।
हाँ, मुझे है पूर्ण विश्वास,
यह
धरा फिर मुस्कुराएगी।
स्वर्ण
बालियों से टंकित,
आँचल
अपना ढलकाएगी
-0-