कमला निखुर्पा
कंक्रीट के जंगल में रहकर
आखिर सभ्य हो गए हैं हम।
काटे
पेड़ पगडंडी तोड़ी
धुँआ उगलती चिमनी जोड़ी ।
खाँस-खाँसकर हुए बेदम
कितने सभ्य हुए हैं हम ।
बेघर हुए वनचर-वनवासी
हरे-भरे वन हुए हैं ग़ुम।
गमलों में कैक्टस उगाए
प्रकृति प्रेम का भरते दम
बहुत सभ्य हुए हैं हम।
नाला बन नदियाँ भी रो लीं
कल-कल कर बहना भी भूली ।
मैला आँचल माँ का करके
बच्चे विकास के पथ पे चलते ।
पीछे छोड़ गए क्या भरम
बहुत सभ्य हो गए हैं हम ।
ताल-तलैया औ झील सुखानी ।
प्यास बुझाए बोतल बंद पानी ।
फिर भी प्यास गर बुझ ना पाई
अब ज़हर मिला जल पिएँगे हम ?
क्या इतने सभ्य बनेंगे हम ?
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