पथ के साथी

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Sunday, May 1, 2022

1203-तीन कविताएँ

 डॉ .रत्ना वर्मा 

1- मै मौन हूँ

 

मै मौन हूँ

निःशब्द हूँ

क्यों न मुझे मौन ही रहने दो

आज भी।

 

कितना अरसा हो गया

हिसाब नहीं लगाती मैं

तुम कहते हो

अब तो बरस बीत गए।

 

खाली- खाली- सा है

मेरा मन

नहीं समझा पाती

क्या कहूँ कैसे कहूँ।

 

पर

तुम तो जानते हो

समझते हो मुझे

क्या है मेरे दिल में।

 

तो आज भी समझ लो ना

बिन कहे ही

बिन पूछे

मेरे अंतर्मन की भाषा को।

-0-

2- चुप -चुप- सी माँ

 

कुछ दिन पहले से माँ

चुप -चुप- सी हो गई थी

न घुटनों का दर्द बयाँ करती

न कमर का

कुछ पूछने पर

हौले से मुस्करा देती

उनका खाना धीरे-धीरे

कम होता जा रहा था

यह तो उनके जाने के बाद जाना

कि ये तो संकेत था

उनके जाने का

हम समझ ही न पाए

कहते थोड़ा और खा लो माँ

हमारा मन रखने को वे

रोटी का एक छोटा टुकड़ा

फिर मुँह में डाल लेतीं

और पनीली आँखों से देखती

जैसे कह रही हों खुश !

मैं पूछती- क्या खाने का मन है माँ

वही बना देंगे जो इच्छा हो

'कुछ नहीं' के उनके शब्दों में

जैसे छुपा था वह ब्रह्म वाक्य-

कोई इच्छा नहीं अब

जी लिया सारा जीवन

देख लिया सुख दुःख का आरोहण

अब बस जाना ही बाकी है

आ रहा है बुलावा...

और आ ही तो गया बुलावा

चली तो गईं वे शांति से

चुपचाप

बिना कुछ कहे

बिना कुछ सुने

सुबह- सुबह अक्षय तृतीया के दिन

सबने कहा पुण्यात्मा थी

अच्छे दिन गईं हैं

और मैं सोचती रही...

माँ तो पुण्यात्मा ही होती है

तभी तो वो माँ होती है...

22 मई 2021

-0-

3- हमारी माँ

 

हमारी माँ जो कभी

हमें तकलीफ़ में देख

दर्द दूर करने के

अनेकों उपाय करती थी

वो आज खुद दर्द में हैं

 

मैं कैसे दूर करूँ उनका दर्द

वो तो खुद हम सबका

दर्द समेटती आई है

 

कैसे पूछूँ उनसे कि माँ

कैसे समेट लेती थी तुम

आँचल में हमारा दर्द

 

आज

कराहती माँ को देख

दर्द से भर आती हैं मेरी आँखें

 

अब जाकर समझ में आया

आँसुओं से भीगे उनके

 आँचल का राज़

 

हृदय के एक कोने में

कैसे छिपा लेती थी

हम सबका दर्द

 

माँ ममता की खान होती है

प्यार और दुलार का

भंडार होती है

माँ और कुछ नहीं

बस माँ होती है l

-0-29-09-2020

Sunday, May 9, 2021

1104-माँ

 

1-माँ

 डॉ. रत्ना वर्मा  

 

हमारी माँ जो कभी


हमें तकलीफ़ में देख

दर्द दूर करने के

अनेकों उपाय करती थी

वो आज खुद दर्द में हैं

 

मैं कैसे दूर करूँ उनका दर्द

वो तो खुद हम सबका

दर्द समेटती आई है

 

कैसे पूछूं उनसे कि माँ

कैसे समेट लेती थी तुम

आँचल में हमारा दर्द

 आज

कराहती मां को देख

दर्द से भर आती हैं मेरी आँखें

 

अब जाकर समझ में आया

आँसूओं से भीगे उनके

 आँचल का राज़

 

हृदय के एक कोने में

 कैसे छिपा लेती थी

हम सबका दर्द

 

माँ ममता की खान होती है

प्यार और दुलार का

भंडार होती है

माँ और कुछ नहीं

बस माँ होती है l

-0- ( सम्पादक उदन्ती मासिक  http://www.udanti.com )

-0-

2-माँ  - सुशीला शील राणा

1.

हँसली बोली हार से, कलयुग है घनघोर।

माँ की साँसें गिन रहा, बँटवारे का शोर।।

2.

आले-खूँटी-खिड़कियाँ, चक्की-घड़े-किवाड़।

माँ की साँसें जब थमीं, रोए बुक्का फाड़।।

3.

माँ ने मुझको दे दिया, जो था उसके पास।

त्याग-नेकियाँ-सादगी, अपनी पूँजी ख़ास।।

4.

फिरकी -सी फिरती रही, दिन देखा न रैन।

बच्चों के सुख में मिला, माँ को हर पल चैन।।

-0-

सासू माँ को समर्पित -

5.

गहरे हों आघात या, विपदा हो घनघोर।

पी लेती हर पीड़ माँ, लाने को नव भोर।।

6.

हर दिन ही माँ का सखे, सौ टके की बात।

पहले खोले आँख माँ, फिर होता प्रभात।।

7.

इतराया है आसमाँ, कई सितारे जोड़।

ख़ुदा ज़मीं के वास्ते, बचे सितारे छोड़।।

8.

निश्छल माँ के प्यार- सा, मिला न कुछ भी शील।

दुनिया लपटें आँच की, माँ है शीतल झील।।

9.

धागे-सी जलती रही, पिघला सारा मोम।

ख़त्म हुई; रौशन हुए, माँ से जगती-व्योम।।

-0-

3-दोनो ही अभिनय में पारंगत ! मैं और माँ

अंजू खरबंदा

 


कल कितने दिन बाद मिले मैं और माँ

दिल का हाल बाँटा कुछ इघर की कुछ उधर की

जब मिल बैठे मैं और माँ !

 

कुछ बातों में उनका मन भर आया

कुछ में आंखे छलछला आई मेरी

जब हाल बाँटने बैठे मैं और माँ !

 

गई थी कि खूब बातें करूँगी

जी का सब हाल उनसे कहूँगी

अपना अपना दर्द बाँटेंगे मैं और माँ!

 

हम दोनों ही प्रत्यक्ष में हँस-हँसकर बोले

कितनी बातों पर हँसे दिल खोले

पर मन ही मन सब समझे मैं और माँ!

 

उनकी उदास आँखो ने कहा कुछ

मेरी उदास आँखो ने भी बतलाया कुछ

वास्तव में कहकर भी कुछ न बोले मैं और माँ!

 

बातों -बातों में कुछ उन्होंने छुपाया

मैंने भी उनको कहां सब बतलाया

एक दूसरे से कुछ कुछ छुपाते मैं और माँ!

 

जिस भारी मन से गई थी

भारी मन से ही वापिस

एक दूसरे को दुख न हो-दोनों ही सोचे मैं और माँ!

-0-

दिल्ली

Saturday, April 4, 2020

966-डॉ. रत्ना वर्मा की कविताएँ


डॉ. रत्ना वर्मा ( सम्पादक उदन्त्ती मासिक  http://www.udanti.com/)

1.ये पता ना था 

ये तो पता था कि
मौत तो इक दिन आनी है
जो उम्र लिखा है ओ जीना है 

पर ये ना पता था
कि 
यूँ चुपके से आ जाएगी
बिना किसी से कुछ कहे सुने
चुपके से ले जाएगी 

अपनों से गले मिलने का 
मौका दिए बगैर 
उन्हें 
बिना देखे बिना सुने 
अलविदा कैसे कह दें 

ये कैसी लड़ाई है 
अपने आप से 
जीने-मरने का
हिसाब करने का 
वक्त तो दो 

ऐसे कैसे आ सकती हो 
बगैर दस्तक दिए 
यूँ ही चुपचाप
-0-
2.कह दो

हवाओं से कह दो
तुम भी 
बहो ज़रा सम्भलके
इंसान की बदनियती ने
घोल दिया है ज़हर ।
तुम तो हर कण में बसे हो 
भला हमें छूऐ बगैर 
कैसे  बहोगे ।

मेरा बस चले तो 
तुम्हें भी बंद कर लूँ 
अपने घर के एक कमरे में
21 दिन बाद 
खोल दूँगी खिड़की दरवाज़े
फिर बहना पंख फैलाकर 
बेख़ौफ़
जहाँ तहाँ , यहाँ वहाँ ।
-0-
3. चिरैया

इन दिनों 
मेरे  आँगन  की चिरैया भी 
चहकने से डरने लगी ।
वह आदी नहीं है 
इस सन्नाटे की
दाना डालो तो 
इधर- उधर तकती हुई 
चौकन्ना होकर
एक दाना चुगती है 
और फुर्र से उड़ जाती है ।

दूर किसी पेड़ की डाल पर बैठी 
टटोलती है 
हम इंसानों की हरकतों को
जैसे पूछ रही हो
क्यों छिपा लिया है चेहरा तुमने 
क्या किया है कोई अपराध
या है पकड़े जाने का डर ।

यदि जीना है बेख़ौफ़ 
तो आ जाओ  हमारी 
दुनिया में
और उड़ जाओ 
जहाँ भी मन चाहे 
ना कोई रोकेगा ना कोई  टोकेगा 
-0-
4.आज की सुबह

रोज़ सुबह 
बगीचे में खिले 
रंग- बिरंगे फूलों को देख 
मन भी खिल उठता था 

पर आज 
फूल भी कुछ उदास थे 
रंग भी उनका कुछ
मुरझाया-सा था ।

तितली और भौंरे भी 
पास आने से कतरा रहे थे 

हवा मद्धम मद्धम 
बह तो रही है 
पर  जैसे 
उनकी गति पर भी 
कर्फ्यू का पहरा लगा हो 

क्या उन्हें भी 
अहसास हो गया है 
इस सन्नाटे का राज़ 

और 
थोड़ी दूरी बनाते हुए 
आ गए हैं 
हमारा साथ देने 
लॉक डाउन 
का पालन करने ।

-0-
5. तितली 

एक तितली ना जाने कैसे 
आज 
कपड़ों के संग भीतर आ गई
मैं घबरा गई
झटका देने पर भी 
नहीं उड़ी 
मैंने धीरे से पकड़ा
और
एक गमले में 
फूलों पर बैठा दिया
वह उड़ नहीं पाई 
पर 
अपने खूबसूरत
रंग- बिरंगे पंख 
बंद करके खोल रही थी 
मैंने  प्रार्थना की उसके लिए 
कहा 
बीमार होने की सजा 
तुम्हें नहीं मिल सकती 
फूलों का रस ले 
और 
उड़ आसमान की खुली हवा में 
घर के भीतर रहने की सज़ा तो 
हम इंसानों को मिली है !
फिर 
मैंने डरते हुए 
बाहर झाँका 
मन ही मन मनाती रही 
और 
मेरी मन की मुराद पूरी हुई 
तितली उड़ गई थी ।
-0- udanti.com@gmail.com