दोहे
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
1
बेकल था तेरा हिया, मैं हो उठा अधीर
।
मैं रोया इस पार था,तुम्हें उठी जो
पीर । ।
2
तुम जागे थे रात भर ,दूर कहीं परदेस
।
हम सपनों में खोजते , धरे जोगिया
भेस । ।
3
द्वार तुम्हारा तो मिला ,तुम थे
गुमसुम मौन ।
हमने बाँचा हूक को , और बाँचता कौन
। ।
4
साँस रही परदेस में , जुड़ी कहीं पर
डोर ।
प्रेम नाम जिसको दिया , उसका मिला न
छोर । ।
5
किया आचमन मन्त्र पढ़,सुबह-शाम
जो नीर ।
पोर पोर नम कर गई ,
वो थी तेरी पीर । ।
6
ढूँढ़ा जिसको उम्र भर , उसको कहते प्रीत ।
धरती -सागर खोज के ,मिले
तुम्हीं बस मीत ।
7
अपने ही घर में लगा , हम हैं पाहुन
आज ।
भोर हुई तो चल पड़े ,अपने-अपने काज ।
8
मन्दिर जाकर क्या करूँ , मुझको मिला
न चैन ।
पण्डित जो रहता वहाँ , वह भी है
बेचैन । ।
9
दो पल में माटी हुआ ,जीवन भर का मेल
।
हमसे खेले यार सब , सदा कपट का खेल
। ।