पथ के साथी
Wednesday, June 29, 2016
Sunday, June 26, 2016
644
हम सबकी ओर से आदरणीय डॉ अरुण जी को जन्मदिन की अशेष शुभकामनाएँ !
-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
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आज जन्म दिवस पर प्रभु को समर्पित यह भाव-गीत आप सबको भी इस कामना से अर्पित है कि जीवन के 75 ग्रीष्म,शरद, और पावस देखकर आज 76वें वर्ष में प्रवेश करूँ ,तो आप सबकी अनंत मंगल कामनाओं का वरदान मेरे साथ हो,जिससे जीवन के शेष समय को सार्थक बना सकूँ। आज उन सभी से हार्दिक क्षमा चाहता हूँ,जिन्हें मेरे कारण जाने या अनजाने कोई कष्ट हुआ हो।
आपका अपना,
डॉ ‘अरुण’
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तुम्हे समर्पित है यह जीवन
मेरे प्रभु!लो शरण में मुझको,
तुम्हे समर्पित है यह जीवन।
जब आया था मैं इस जग में,
चादर तुम ने ही दी थी पावन।
इसके बल पर सहन किए हैं,
धूप-छाँव,पतझर अरु सावन।।
खूब प्रसन्न हुआ हूँ भगवन,
जब भी आए खुशियों के घन।
जग में रह कर खूब किए हैं,
राग-द्वेष के नाटक निसिदिन।
कभी अहम ने घेरा मुझ को,
कभी विनय में बीते पलछिन।।
जब भी तन को तृप्ति मिली,
चहक उठा था यह मेरा मन।
चादर में हैं दाग प्रभु। अब,
आना है अब पास तुम्हारे।
कुछ ऐसा कर देना प्रभु जी,
पा जाऊँ मैं चरण तुम्हारे।।
सब कुछ तुमने दिया मुझे नित,
तुम्हे समर्पित हैं तन,मन,धन।
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डॉ योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
पूर्व प्राचार्य,74/3,न्यू नेहरू नगर,
रुड़की-247667
Tuesday, June 21, 2016
ब सोचता है लड़का-
डॉ.कविता भट्ट
वसंत,
होली और परीक्षाएँ
सब एक ही समय क्यों आते हैं
पुस्तक खोल, सोचता था वह घण्टों
और एकटक निहारता था
उसे एक लड़की के मुखड़े -सा
अक्षर- प्रियतमा के होंठों से थिरकते थे
पन्नों की सरसराहट-
जैसे बालों में हाथ फेरा हो उसके
उभर आती थी आँखें उसकी पृष्ठों पर
लड़के का किशोरमन निश्छल प्रेम करता था
क्योंकि तब वह संसार के गणित में नहीं
रमा था
अब सोचता है लड़का-
अहा! वो भी क्या दिन थे?
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2
बोझिल पलकों
को लेकर
लिखना चाहती हूँ -
दर्द और संघर्ष
देखूँ- पहले क्या ख़त्म होता है
कागज, स्याही, दर्द, दर्द की दास्ताँ,
या फिर मेरी पलकों का बोझ...?
जो भी खत्म होगा
मेरे हिस्से कुछ न आएगा
क्योंकि समय ही कद तय करता है,
दर्द और संघर्ष कितना भी बड़ा हो
बौना ही रहता है...।
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Monday, June 20, 2016
643
जीवन चिरंतन हो गया है
डॉ
योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
जब से मिले हो तुम मुझे,
जीवन ये पावन हो गया है!
अँधियार
सारा मिट गया,
उजियार ही उजियार है!
नफरत मिटी मन से मेरे,
अपना-
सा अब संसार है!!
हर तरफ फैली हैं खुशियाँ,
जीवन तपोवन हो गया है!
उपकार से परिचय हुआ,
उपकृत मैं जैसे हो गया!
जब
सुख दिए संसार को,
मैं सुखी खुद हो गया!!
पतझर मिटा मन का मेरे,
जीवन ही सावन हो गया है!
वसुधा मेरी अपनी हुई,
विस्तार मुझको मिल
गया!
मृत्यु - भय मन से गया,
अमरत्व मुझको मिल गया!!
पा गया अमृत मैं पावन,
जीवन चिरंतन हो गया है!
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डॉ योगेन्द्र नाथ शर्मा "अरुण"
पूर्व प्राचार्य,74/3,न्यू नेहरु नगर,रुड़की-247667
Friday, June 17, 2016
642
कृष्णा वर्मा
तुम्हें नहीं देखा कभी
घर में कुछ छूटे हुए तुम्हारे चिह्नों ने
मुझे तुमसे परिचित करवाया
जिन्हें माँ ने यादों की तह संग
एक संदूक में रख छोड़ा था
तुम्हारे कुरते के सोने के बटन
जिनकी चमक मुझे जब-तब
कितना लुभाती रही होगी
और तुम्हारी गोदी में बैठ मुझे
खिलौने का- सा आनन्द देते रहे होंगे
तुम्हारा धूप का काला
जिसे कई बार मेरे नन्हें हाथों ने
उतार लेने की ज़िद्द की होगी
तुम्हारी हाथ- घडी, पेन,
कमीज़ों के कफ लिंक्स जिन पर लिखा
मेड इन इंगलैंड स्पष्ट करता है
तुम्हारे शौकीन मिज़ाज़ को
माँ और तुम्हारे पवित्र रिश्ते की निशानी
वह शादी की अँगूठी आज भी
ज्यों की त्यों सहेज रखी है
तुम्हारे कपड़े जूते शायद किसी ज़रूरतमंद
पिता की ज़रूरत को पूरा करने के लिए
दान के रूप में दे दिए गए होंगे
सिल्क जौरजेट की सुन्दर रंग-बिरंगी साड़ियाँ
जो तुम कभी प्यार से माँ के लिए लाए होगे
उदासी ओढ़े पड़ी हैं संदूक में
माँ ने तुम्हारी गुमसुम यादें
उनमें लपेट आज तक सन्दूक में
कपड़ों की तहों के सबसे नीचे दबा कर रखी हुई हैं;
क्योंकि उन रंगों को पहनने का हक
जो तुम माँ से छीन ले गए हो अपने साथ
और दे गए श्वेत शांत दूधिया रंग ओढ़ने को
जो बेरंग जीवन के लम्बे रास्तों को
अकेले ही तय करने का अहसास दिलाता रहे
तुम्हारी प्रीत की दो निशानियाँ हैं उसके पास
जिनमें तुम्हारे ढब और शील झलकते हैं
अदृश्य से आज भी जीवित हो तुम
माँ के इर्द-गिर्द।
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