पथ के साथी

Saturday, May 28, 2011

व्यंग्य–दोहे


रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
1
मन में कपट -कटार है, मुख पर है मुस्कान ।
गलीगली में डोलते, ऐसे  ही  इंसान ।।
2
नफ़रत सींची रातदिन , खेला नंगा खेल ।
आग लगाकर डालते, खुद ही उस पर तेल ।।
3
जनता का जीना हुआ, दो पल भी दुश्वार ।
गर्दन उनके हाथ में, जिनके हाथ कटार ।।
4
ऊँची ऊँची कुर्सियॉं, लिपटे काले नाग ।
डॅंसने पर बचना नहीं, भाग सके तो भाग ।।
5
रातअँधेरी घिर गई, मुश्किल इसकी भोर ।
भाग्य विधाता बन गए, डाकूलम्पटचोर ।।
6
गुंडों के बल पर चला , राजनीति का खेल ।
भले आदमी रो रहे,   ऐसी पड़ी नकेल ।।
7
बनी द्रौपदी चीखती,अपनी जनता आज ।
दौर दुशासन का चला, कौन बचाए लाज ।।
8
अफसरअजगर दो खड़े , काको लागौ पाँय ।
बलिहारी अजगर तुम्हें ,अफ़सर दियो बताय ।।
9
बाती कौए , ले उड़े , चील पी गई तेल ।
बाज देश में खेलते , लुकाछिपी का खेल ।।
10
बिना खाद पानी बढ़ा, नभ तक भ्रष्टाचार ।
सदाचार का खोदकर, फेंका खरपतवार ।।
11
जनता की गर्दन सहे, झटका और हलाल ।
जन सेवक जी खा रहे, रोजरोज तर माल ।।
12
छल करने का लग सके, जरा न तन पर दाग ।
आस्तीन में रहा करो, बनकर काला नाग ।।
13
मित्रों में हमने लिखा, जबसे उनका नाम ।
धोखा खाने का किया , खुद एक इन्तजाम ।।