1-फागुन, यूँ ही ना गुज़र जाना
डॉ.महिमा
श्रीवास्तव
सावन आया, पर प्यासा मन रह गया
जाड़े आए मन तपता रहा फिर भी।
बसंत भी फूल ना खिला पाया दिल के
फागुन ,बेरंग ना छोड़ जाना इस बार।
लाख निराशाओं के घेरे रहे चारों ओर
मैंने तो आशा को गाना ही तो सीखा है।
रूखे लोगों की भीड़ में सरस सरल रहूँ
ओ फागुन तू पलाश मन वन उगा जाना।
मेरे गीत मौसम की मारों से भ्रमित हों ना
मन में फाग की
गूँज बनी रहे आजीवन,
जो बिसराएँ उनको भी नेह का गुलाल भेजूँ
मैं क्यों अपने को फागुन में उदास करूँ ?
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2-क्षणिकाएँ
प्रीति अग्रवाल 'अनुजा'
1.
ऐ परवाने
तू ने यूँ ही,
शम्मा को बदनाम किया...
वो तेरी ज़िद थी, जिसने
तुझे तमाम किया...!
2.
दिन हैं सर्दी के,
बस उन्हीं का
ज़िक्र होता है...
सर्द आहों से सर्द
कुछ भी,
कहाँ होता है!
3.
चाँद तारों को लाने की
ज़हमत न कर....
तेरा होना बहुत है,
मेरे हमसफ़र....!
4.
खुली किताब हूँ मैं,
मुझे पढ़ तो सही....
तुझे, तेरी कहानी
के किस्से मिलेंगे...।
5.
रुलाने में तुमने
कसर तो न की थी....
न रोने की मैंने,
कसम पर है खाई....!
6.
पाबन्दी,
मुस्कुराने पे,
लगाते हैं वो.....
उनसे पूछो,
इजाज़त,
क्या रोने की है....?
7.
खिलते हैं फूल अब भी,
महकते, पर नहीं....
जाने से तेरे, जाने क्यूँ,
वो बात अब नहीं....।
8.
सुनती हूँ अब भी मैं ही,
और, कहते हो तुम्हीं....
झनझनाते मगर दिल के,
वो तार अब नहीं.....।
9.
चाशनी में अब भी डूबी,
है ज़बां, जहान की....
जाने क्यों लुत्फ उनमें,
मिठास, अब नहीं....।
10.
यूँ तो सब वही है,
बदला तो कुछ नहीं....
हर शय में क्यों कमी है,
क्या मैं ही, बदल गई?
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