हिन्दी हमारी - स्वाभिमान देश का
पुष्पा मेहरा
जब-जब नींद से उबरते हैं हम हिन्दवासी
याद कर लेते हैं कहानी- सी मातृभाषा अपनी,
साहित्यकारों के भावों की सजनी को
पढ़कर, गाकर, लिखकर, शब्दों के शृंगार से सजा कर-
पत्र-पत्रिकओं में छपवाकर
हम हिन्दुस्तानी मनाते हैं हिन्दी-दिवस पखवाड़ा।
मनाते-मनाते , कहते-कहाते, सुनते-सुनाते
गुणगान मातृभाषा का
हम नवजात शिशु से बढ़ते हुए
पार कर जाते हैं
उम्र की सीढ़ियाँ
बचपन, जवानी, प्रौढ़ावस्था और बुढ़ापा।
जन्मदाता सिखाते हैं हमें स्वाबलंबी बनना
ज़माने में कुछ कर दिखाना
छूना है आकाश अगर
तो उठाने होंगे पाँव ज़मीं से,
सब कुछ पाने के लिए
खोना होगा कुछ तो अपना।
बूढ़ी दादी सी धरती का परिवार
पड़ा है खींच-तान में
तख्ती प्रांतीयता की लगी है
प्रांतों की सरहदों पर।
पूरब से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण तक
जन्मते ही हर नवजात शिशु
पुकारता है कोमलतम शब्द "माँ"
छलक जाती है गागर वात्सल्य की
उमड़ पड़ती है पय:स्रोतस्वनी ।
धीरे-धीरे बदलता जाता है
कंठस्वर उसका
जीवन की भूल-भुलैया में
बँध जाता है प्रान्तों के स्वाभिमान से।
ऐसा लगता है भारतीयता के आँगन में-
मातृभाषा मातृ शब्द का दोष सह रही है
हाँ सहना ही पड़ता है माताको
अपने बच्चों से मिले सुख या दुख को
सुख है कि गर्व से कहलाती मातृभाषा हमारी,
याद की जाती नौदुर्गा के नौ रूपों के रूप में
पूजी जाती, सराही जाती
शब्द-सुधा से नहाती
जीवित रहेगी यह वचनबद्धत्ता स्वीकारती
समारोहों, भाषणों, कवियों के वाग् -विलास से सम्मोहित होती
भूल जाती अपना कष्ट, सहती दुख-दर्द
बाँट ना पाती मनोव्यथा अपनी सौतन से।
आओ सहेज लें वर्ण-वर्ण,सजा लें मुक्ता -माल से
जुड़ी रहें कड़ियाँ, हर प्रांत, हर देश की
एक ही हार से।
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