पथ के साथी

Friday, July 31, 2015

552-कथ्य और पथ्य


रामेश्वर काम्बोज हिमांशु


     कुछ लोग पहले तोलते हैं , फिर बोलते हैं। कुछ सिर्फ़ बोलते हैं,वह सार्थक हो या निरर्थक , इससे उनका कुछ भी लेना-देना नहीं। वे फुँफकारते हैं, दुत्कारते हैं; सुनते नहीं; क्योंकि उनके कान नहीं होते। कुछ और भी आगे होते हैं ,वे अपनी बात का वज़न खो चुके होते हैं , इसलिए  वे न तोलते हैं, न बोलते हैं , वे सिर्फ़ भौंकते हैं। ऐसे लोग धन्य हैं; क्योंकि वे एक ही योनि में दो-दो जन्मों का आनन्द  ले लेते हैं। कोई सुने न सुने , गुने न गुने । जो पैदा ही बोलने के लिए हुए हैं , तो उनको बोलना ही है। इस तरह के बोलने वालों की श्रेणियाँ तय की जानी ज़रूरी हैं। गलती से अगर आपने फोन कर दिया ,तो वे आपके कान गर्म होने तक (उनकी बातों से या फोन की गर्मी से) आपकी जान नहीं छोड़ेंगे। अगर वे खुद फोन कर रहे हैं; तो अपनी बात आपके सामने पटककर बिदा हो जाएँगे।
          कुछ कानून की बात करते हैं ; लेकिन जब उन्हें मौका मिलता है , मर्यादा के पन्ने फ़ाडकर  हवा में उछाल देते हैं। कुछ को जब  मिर्गी का दौरा पड़ता है, तभी बोलते हैं । क्या बोलते हैं ,इन्हें खुद भी पता नहीं। कुछ दिनों बाद ये सींग पूँछ दबाकर गायब हो जाते हैं।जिह्वा की मिर्गी के दौरे से पीड़ित इन लोगों के बारे में किसी कवि ने कहा है-
     जिह्वा ऐसी बावरी , कह गई सरग पताल।

     आपुन तो भीतर गई , जूती खात कपाल ।
अब खोंपड़ी जूती खाए या पुचकारी जाए , इनको फ़र्क नहीं पड़ता।इन बोलने वालों में से कुछ ने दस्ताने पहन रखे हैं, धर्मनिरपेक्षता के ,बुद्धिजीवी के, मानवाधिकार के । मानव अधिकार का मतलब किसी आम आदमी के अधिकार की चिन्ता से नहीं है। आम आदमी के साथ जीना-मरना लगा ही रहता है।यही उसकी नियति है।   इस आम आदमी को जो सरे राह अचानक हलाक़ कर  देता है, उसे न्याय मिलना चाहिए , उसे सज़ा नहीं होनी चाहिए , उसके लिए आवाज़ उठानी चाहिए । उसके लिए लल्लू से लेकर बल्लू तक सभी गला फ़ाड़ बहस करने लगते हैं।बेचारा आम आदमी तो प्राथमिकी लिखवाने से भी वंचित कर दिया जाता है। दस्ताने पहनकर बात करने वाले लोगों के दस्ताने नहीं उतरवाइए । ऐसा करेंगे, तो इनके खून रंगे हाथ नज़र आ जाएँगे। इनको बहुत से काम करने हैं । दुनिया को अहिंसा का सन्देश देना है,अखबारों में नाम आना है, विवादों को हवा देनी है, हाय-हाय और मुर्दाबाद के नारे लगाने हैं । अगर इनका कोई सगा और बेकसूर मारा जाता ,तो इनकी ज़बान पर ताले लग जाते।जिनका कोई सगा आतंकवाद की भेंट चढ़ा है, जिनका घर बार और पूरा भविष्य बर्बाद हुआ है , उनसे पूछा जाए कि फाँसी देना गलत है या सही ? करौन्दे की तो बात ही छोड़िए ,जिसको कभी झरबेरी का काँटा भी न चुभा हो , उसके मुँह से साधु-महात्माओं जैसी बात अच्छी नहीं लगती। आम जन की मौत या हत्या पर इन भौंकने वालों की आँखें नम नहीं होतीं। किसी क्रूरतम व्यक्ति के मारे जाने पर इनका मानव-धर्म वाला  ज़मीर कैसे जाग उठता है ! इसके डी एन ए  का परीक्षण होना चाहिए।
बीमार आदमी को दवाई दी जाती है , कुछ पथ्य ( परहेज़) भी बताया जाता है । बोलने वालों को भी चाहिए वे सिर्फ़ भोंपू नहीं हैं  ,ईश्वर ने उनको कान भी दिए हैं, जनमानस को भी समझें और कुछ सुनना भी सीखें। यह उनको छूट है कि कोई उनके सगे सम्बन्धी को मारे ,तो चादर ओढ़कर सो जाएँ । पुलिस को खबर न करें और न कोर्ट के चक्कर लगाएँ।क़ातिल पड़ोसी से प्रेम जताने के लिए सीमा पर जाकर कैण्डिल जलाएँ, देश में सुरक्षा में तैनात जवान शहीद हो जाएँ ,तो सहानुभूति के दो शब्द भी न कहें। हिंसा करने वाले की निन्दा न करें, बल्कि उससे डरकर चुप रहें।
         यह देश सबका है , लेकिन उनका नहीं है ,जो इस देश का कल्याण नहीं सोचते। जो देश का कल्याण न सोचकर पूरी ताकत इसे कमज़ोर  करने  में लगाते हैं, जिनको अपना घर भरने से ही फ़ुर्सत नहीं, जिनके पास अपने दाग धोने या उनको देखने का समय नहीं है, वे भौंककर अपने फ़ेफ़ड़े कमज़ोर न करें। कुछ कहना है तो पहले तोल लें। कथ्य के साथ पथ्य ज़रूरी है। अपनी बेहूदी बातों से , बचकानी हरक़तों से देश और समाज को कमज़ोर न करें । दो जून की रोटी जुटाने वाले का जीना हराम न करें , उसे जीने दें। उसे मज़हब की आग में न झोंकें।इस देश का निर्माण बातूनी लोगों ने नहीं किया , कर्मशील लोगों ने किया है। आग जहाँ लगती है , केवल उसी क्षेत्र को जलाती है, लेकिन बातों की आग पूरे समाज को तबाह करती है। वाग्वीर घोड़े नहीं है , फिर भी इनको लगाम देना ज़रूरी है।
                                               -0-
प्रतिक्रिया स्वरूप डॉ अर्पिता अग्रवाल और आदरणीया दीदी  डॉ सुधा गुप्ता जी के पत्र संलग्न हैं-
 

Thursday, July 30, 2015

यादों के झरोखे में कलाम



मंजु गुप्ता

'' बने धरती कैसे खुशहाल "
उस पल  हुई साँसें बेहाल
कह न पाई अपनी बात
विदा हो गईं ले के कलाम।

 

गूगल से साभार

गमगीन आँखें दें   विदाई
देता देश - विश्व  सलामी
देश को समर्पित जिंदगानी
दे  श्रद्धांजलि हर  भारतवासी।


अभावों - मुश्किलों भरी जिंदगी
परिश्रम - सच्चाई करे न्दगी
मन तरंगे हालात से   खूब लड़ी
छुई उड़ाने परमाणु की कामयाबी की।


विशाल सोच , चिंतन के ध्यानी
थे शिक्षक , आध्यात्मिक ज्ञानी
आदर्शों , अंतस् प्रज्ञा के धनी
' विंग्स ऑफ फायर ' लोकप्रिय बड़ी।


मानवीय पूँजी थी बड़ी भारी
बैंक पूँजी में खाता था  खाली

रसीला फलदार  वृक्ष सरीखा
विनम्र प्रतिमूर्ति योगदानोंवाली।


बढ़ाया विश्व में ' अग्नि '  ' पृथ्वी ' से मान
मिला  ' मिसाइल मैन ' ; भारत रत्न '   खिताब
लक्ष्य  ' बीस हजार बीस '  तक का सपना
करना था   देश को विकसित अपना।


चढ़ी रहती अथक कामों की धुन
सफलता की समृद्धि सपनों से बुन
किया मेल अध्यात्म - विज्ञान का
जिया जीवन ' गीता ' - ' कुरान ' - सा


बन राष्ट्रपति बाल - जन -युवा में बेमिसाल
नई सोच विज्ञान -  चिकित्सा की बनी मिसाल
सभी परम्परा - संस्कृतियों  में गए थे घुल
रूढ़ियों - कुरीतियों की तोड़ी अमिट  दीवार।


जर्रे - जर्रे को कर गए खुशहाल
' न करना मेरे मरने पे अवकाश
करना देशवासियों दुगना काम '
करेंगी  सदा' पीढ़ियाँ उन्हें याद
                                -0-
               
               

Sunday, July 26, 2015

नहीं छू पाती तुम्हें



 1-नहीं छू पाती तुम्हें
 अनिता मण्डा

तुम दूर कहीं चमकते हो
आसमान के सीने पर
आना चाहती हूँ तुम तक उड़कर
हाथ उठाती हूँ हवा में पूरे वेग से
पर पैर रहते हैं धरती से चिपके
नहीं छू पाती तुम्हें।

मन की नदी में
ढूँढती हूँ तुम्हारा अक़्स
उतर जाती हूँ गहराई में
तुम्हें पाने
पर तभी नदी के
पानी में छुपे हुए
अनगिनत ज़हरीले नाग आकर
दंश मारने लगते हैं।

मेरा पोर-पोर दर्द से भर जाता है
मैं तड़प उठती हूँ।
नदी सिहर उठती है
मेरी सिसकियों से

तभी एक फूल की
महक से भरी हवा
छू लेती है
नदी के पानी को
सारे नाग मिल गूथ जाते हैं
जाल में बाँध मुझे
ले आते हैं किनारे

धीरे-धीरे मेरी सिसकियाँ
बन जाती हैं हिचकियाँ
फिर यही लगता है
तुम ऊपर आसमान में
मुझे याद कर रहे हो
बुलाना चाहते हो अपने पास

मैं भी आना चाहती हूँ तुम्हारे पास
उठाना चाहती हूँ तुम्हें गोद में
छूना चाहती हूँ तुम्हें

कैसा होगा तुम्हारा कोमल
मधुर प्रथम स्पर्श
प्रतीक्षा है मुझे हर पल
उस पल की।
-0-
2-सुनीता अग्रवाल


1-प्रेमसाधना

हद से गुजर जाते है
जब ख्यालों  में तुम्हारे
गूँगे  हो जाते है अल्फ़ा
छिप जाते है गहराई में
कही गहरे सागर में
की डाले न विघ्न
कोई आवाज़
इस प्रेम साधना में ।
-0-
2-यादें

यादें नही
गेसुओं में उलझी
जल की नाजुक बूँदें
कि
झटक दूँ
और बिखर जाएँ ।
-0-

Thursday, July 23, 2015

होता जो समय





1- कृष्णा वर्मा
  होता जो समय रेज़गारी सा
डालती रहती गुल्लक में
बचे छुट्टे पैसों की तरह
कर लेती ख़र्च
अपनी खुशियों के लिए
मिटा लेती तृषा
अपनों को मिलने की
भिगो आती पलकें
दुलार की फुहारों से
सँवार आती माँ-बाप के
दस अधूरे काम
बँटा देती अम्मा का हाथ
घर की साफ-सफाई में
सँजो देती अनचाहा सामान
बदल आती
माँ की उदासी खुशियों में
हल्का कर आती
उसकी छाती को सालता दुख
जुड़ा देती पिता की ऐनक
की टूटी कमानी
गँठवा लाती उनकी
जूतियों के तले
कुछ और समय चलने को
सिमटवा आती उनके
अधूरे हिसाब-किताब
बटोर लाती उनके
हौसले और अनुभवों की
अनमोल पूँजी
ले जाती छोटी बहन को
बाज़ार घूमाने
दिला लाती उसकी मन पसंद
चूड़ियाँ रिबन लहँगा-चोली
खिला लाती कुल्फी चाट-पकौड़ी
झुला लाती घुमनिया झूले पे
लडिया कर अम्मा से
फिर दोहरा आती अपना बचपन
भर लाती माँ के चौके की
सुगंध नथूनों में
जी आती सुख के कुछ क्षण
माँ की स्नेह- छाया में
पुतवा आती खुशियाँ
मन की दीवारों पर
खिल उठता
मेरी वीरानियों में भी
मोहक वसंत
बचा पाती जो थोड़ा सा समय
सरपट भागती जिन्दगी से।
      -0-

2-गुंजन अग्रवाल
झाँका है दूर नभ से  प्रेमी का रूप बन के
निकला है आज चन्दा फिर देखो  ये बन ठनके 
भूलो गमों के नगमे जी भरके मुस्कुराओ
कर लो इबादतें तुम अरमाँ भी  पूरे मन के