1-आई दिवाली –
पुष्पा मेहरा
आई दिवाली
श्रद्धा–मन्दिर में
पधारे श्री लक्ष्मी-गणेश जी
दीये हमने जलाए
प्रेम और विश्वास के,
बाती
हमने जगाई
तप
और त्याग की,
लड़ियाँ
हमने लगाईं
भाव शृंगार
की ।
आई
दिवाली
रँगोली हमने सजाई
आस्था–संस्कार की,
रोशन हुआ चौबारा
धुन बजी हर्ष की
तम को हराने का प्रण ले
मात्र प्रकाश पर्व की ।
तम का इशारा करती
साँझ जो बीती थी
वह भी सुखद–सिन्दूरी थी
पाखी गणों के कलरव से
सरस रँगीली थी,
अंतत: आत्मशक्ति केन्द्रित वह
रतजगे का आलम रात को सौंप गई।
रोशनी
की लहरों में तैरती
नशीली
रात,अमा के तम को
जो
भगाने आई
बम,पटाखों-फुलझड़ियों
से खेलती
सबकी खुशियों में झूमती
नये सूर्य के इन्तजार में
अगणित दीप-मालिका
सजा के जागती रही ।
क्योंकि –
दीपावली के शुभ दीपोत्सव में
उसकी भी तो भागीधारी रही
प्रकाश को तो फैलना है ,
ज्योति ने सदा अँधेरे से
ऊपर उठने की ठानी है ।
जड़ता और अज्ञान तम मिटाने की
आतंक की जड़ें खोदने की,
एकता का बीज रोपने की,
बाल ,युवा किशोर –वृद्ध
सभी को कमान सँभालनी है ।
तो आओ!भेदभाव भुला कर
सही दिशा में कदम धर
आतंक की अमा में डूबी
मन की अँधेरी गलियों में
प्रेम–प्रकाश भर
वसुधैव
कुटुम्बकम के
स्वप्न को साकार कर
धरती पर स्वर्ग लाने की ठान लें
क्योंकि मानवता का संदेश साथ
लाई दिवाली है ।
-0-2-आज अमृता जी को उनकी पुण्यतिथि पर उनको याद करते हुए..........एक कविता।
अनिता मण्डा
अमृता !
प्यारी अमृता!
तुम करती रही
देवताओं को जगाने की कोशिश
ताउम्र
जो सोये थे इन्सानों के भीतर
तुम एक साथ वर्जनाओं को तोड़ती
और संस्कारों को ढाल बनाती
चलती रही अंगारों की राह पर!
ठहर गया था जो निगौड़ा सोलहवाँ साल
उम्र में, जीती रही साँस दर साँस
और दे गई जाने कितनी आँखों को
इश्क़ के ख़्वाब।
जलाते हुए इश्क़ के दिये
टाँग दी कितनी आँसू की झालरें।
सिगरेट के बचे बट से ढूँढ़ते
समेटती रही साहिर को,
कभी इमरोज़ के पीछे स्कूटर पर बैठ
तुम्हारी अंगुलियाँ
लिखती रही साहिर का नाम
इमरोज़ की पीठ पर
पीती रही अम्बर की सुराही से !
कौन कह सकता था तुम बिन
वारिस शाह से कि
उठो अपनी क़ब्र से और लिखो
भारत की बेटियों के आँसू !
कौन पूछता तुम बिन नानक की माँ को
कैसा था अहसास
सूरज को नो महीने कोख़ में रखने का !
तेरे लफ़्जों पर फौजदरियाँ
कहाँ रोक पाई
उनकी उड़ानों को
थाम इमरोज़ की बाँह
पी लिए तुमने सारे आँसू !
अधकच्ची नींद के ख़्वाब से
तुम बटोरती रही हरसिंगार !
पाक मुहब्बत के सच्चे परिन्दे
भरते रहे रंग
जीवन के आसमान में
माँडते रहे धनक।
देख एक दूजे को जब मुलक लिए
जब आँखों ने कह दिया - तुमसे प्यार है!
जुबाँ को कहना जरूरी नहीं लगा।
जहाँ बैठ रचे तुमने कितने किरदार
ढहा दिया वो ताजमहल सा इक मन्दिर
इमरोज़ के सामने।
पर तुम अब भी हो
इमरोज़ की मुस्कान में।
तुम सदा रहोगी
जब तक इश्क़ है दुनिया में।
तुम अब भी जगा रही हो
इंसानों के भीतर सोये देवताओं को।
अमृता तुम सदा मिलती रहोगी इमरोज़ को
कभी तारों की छाँव में,
कभी बादलों की छाँव में,
कभी किरणों की रोशनी में,
कभी ख़यालों के उजाले में रंग लेकर
सच! जिस्म मिट जाने मात्र से
इन्सां थोड़े ही मिटते हैं.......