पथ के साथी

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Sunday, May 9, 2021

1103-माँ

 1-माँ अब कुछ कहती नहीं!

                  -अनिता ललित

(यह कविता मैंने तब लिखी थी, जब माँ जीवित थीं और कई बीमारियों की तक़लीफ़ से जूझ रहीं थीं! उनकी वह बेबसी मुझसे देखी नहीं जाती थी! उनके पास जाकर कुछ दिन रहकर, उनके साथ वक़्त बिताकर, जो कुछ भी उनके लिए कर सकती थी, मैंने किया! सोते समय भी वह मेरा हाथ पकड़े रहतीं थीं, किसी छोटे बच्चे की तरह –यह याद करके मेरी आँखों में आज भी आँसू आ जाते हैं! जनवरी, सन् 2019 में वो इस दुनिया को अलविदा कह गईं! ईश्वर से प्रार्थना है, वे जहाँ भी हों, सुक़ून से हों, सुख में हों!)

 

माँ अब कुछ कहती नहीं!


लगता है, वह जीती नहीं!

ख़ाली, वीराँ आँखों से

वो बस देखा करती है;

चीख़ उठे कभी –

अनायास ही –

घुटतीं हों साँसे जैसे!

या -

कचोटता हो दर्द कोई,

भीतर ही भीतर उसको -

बयाँ नहीं कर पाती जिसको!

पीड़ा अन्दर पीते-पीते,

लगता है, वो रीत गई!

थी जीवन से भरपूर कभी जो –

वो माँ! -अब कुछ कहती नहीं,

लगता है, वह जीती नहीं!

 

जब से होश संभाला मैंने

माँ को बस, चलते देखा है!

घर के कोने-अतरे तक को -

उसको चमकाते देखा है!

खाना-कपड़े-झाड़ू-बर्तन

उसके हाथ खिलौने थे!

सबकी चीज़ जगह पर मिलती

माँ, पर, एक जगह न टिकती!

वो माँ! –अब कुछ कहती नहीं 

लगता है वो जीती नहीं!

 

माँ के हाथों का खाना

जिसने खाया, उसने जाना –

वह स्वाद अनोखा, प्यार अनूठा –

मन को करता आज भी मीठा !

सबको करके तृप्त सदा ही

वह कुछ खाती-पीती थी!

लेकिन, कभी-कभी, थक कर माँ -

भूखी ही सो जाती थी!

 

आँधी-तूफ़ाँ या बरसात

सब उससे घबराते थे!

कड़ी धूप में साया देती -

माँ! आँचल में भर लेती थी!

कितनी भी हो कठिन समस्या –

माँ! सब हल कर देती थी!

 

आज विवश हो उम्र के हाथों

बीमारी, लाचारी में –

घर के सूने कमरे में,

बेतरतीब से कोने में -

निपट अकेली पड़ी हुई माँ -

बस! रोती है, सिसकती है!

साँसों से जैसे थक चुकी है!

माँ अब कुछ कहती नहीं!

लगता है, वह जीती नहीं!

 

जितने मुँह में दाँत नहीं,

उससे ज़्यादा छाले हैं !

पेट की आग जलाती है!

जो दे दो –खा लेती है!

खाती क्या –निगलती है!

न खाने का स्वाद रहा,

न जीने का चाव रहा !

खाती है –तो जिंदा है!

जिंदा है –तो खाती है!

माँ अब कुछ कहती नहीं !

लगता है, वह जीती नहीं !

अब शायद –

जीने की चाहत भी नहीं!

-0-

अनिता ललित ,1/16 विवेक खंड ,गोमतीनगर ,लखनऊ -226010

ई मेल: anita.atgrace@gmail.com

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2-माँ

डॉ. सुरंगमा यादव

माँ है तो घर हँसता
माँ से ही घर में व्यवस्था
उसका मृदु स्पर्श
पल में दुःख हरता
आँखों से बहता
ममता का सोता
माँ के बिन खाली-खाली
मन रह -रह रोता
माँ है तो हर नखरा
वरना कौन मन रखता !
माँ मंगल रोज मनाती
मुझे अपनी उमर लगाती
डर जाऊँ जब अंधियारे से
झट से गले लगाती
माँ के आँचल से मुँह पोंछना
अब भी बड़ा सुहाता
रोज -रोज की फरमाइश
माँ पूरा करने को तत्पर
माँ का  मन ज्यों नवनीत नवल
पल में द्रवित हो जाता
माँ नहीं तो अब कोई भी
कहता न थक कर आयी  हो
बालों में उंगली की थिरकन
अब दूर करेगा
कौन थकन!
आशीषों से अपने
जीवन में सुख-समृद्धि भरती
अपनी खुशियों से बेपरवाह
सबकी खुशियों में खोई रहती
अपना दुःख कहे नहीं
औरों का बिन कहे समझ लेती
'माँ' एक अक्षर का शब्द मात्र
जिसमें ब्रह्माण्ड समाया
उसकी ममता पाने को
खुद ईश जगत में आया
माँ जीवन की किलकारी
आँसू पर मुस्कान सजाती
जो माँ का मान नहीं करते
वे समझो बड़े अभागे
माँ की सेवा से विरत रहें
अपनी दुनिया में खोये हैं
कल क्या हो किसने जाना
आज दुआओं से उसकी
निज दामन भर लो!

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3-नींद की मीठी झपकी माँ

  डॉ.महिमा श्रीवास्तव

 

 

पहाड़ों से निकलते

फेनिल, खुशी के झरने

जैसी थी मेरी माँ ।

टैगोर की गीतांजलि-सी

काव्य की सौगात

ही थी मेरी माँ ।

जलतरंग -सी बजती

चूड़ियों से भरी गोरी कलाई

माखन मिश्री- सी थी माँ ।

मेरी बाट निहारने वाली

चंपा -चमेली की

बगिया जैसी थी मेरी माँ ।

झिरमिर बारिश से

नम हुई माटी की

सौंधी खुशबू  जैसी

मेरी सखी थी माँ ।

मधुमालती की बेल- सी

मेरे मन के द्वार को

घेरे रहती  थी माँ ।

जाड़े में नर्म रजाई- सी

मुझे अपने में समेट लेती

ममता की बाहों सी माँ ।

गोभी गाजर के अचार के

मसालों से सने हाथों वाली

स्वादों का संसार थी माँ ।

सपने में दिखने वाली

जादुई छड़ी लिये

सोनपरी जैसी थी माँ ।

पुस्तकों पर थका

सिर रखे हुए

मीठी नींद की झपकीजैसी ही थी माँ।

 -0- Email: jlnmc2017@gmail.com

      8118805670

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Tuesday, February 16, 2021

1051

 1-अनिता ललित

1

तारों की छाँव


फूलों का आशियाना
चाँद का साथ
चाँदनी का तराना~
सब हैं साथ
फिर क्या बात!
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2-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

 

बड़े जतन से

जीवन भर जो, बाँधी थी

बीच बाट में-

गठरी अपनी छूट गई ।

 

डोर बाँध हम

छत को छूने वाले थे

संगी -साथी

कुछ तो दिल के काले थे

किसने काटे

छोर कि डोरी टूट गई ।

 

हम गगरी में

भरकर गंगाजल लाए

‘घट पापों का’

कहकर कुछ थे चिल्लाए

सबने फेंके

पाथर गगरी फूट गई ।

 

घर-द्वार छिना

छाँव नीम की, बाट छुटी

बेचा सबने

हमको जिसमें हाट लुटी

मिली शराफ़त

वही हमीं को, लूट गई ।

 

काज़ी तुम हो

दण्ड हमारे नाम लिखो !

भोर उन्हें दो

हमें आखिरी शाम लिखो

अपना क्या दुख

हमसे क़िस्मत रूठ गई ।

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Tuesday, August 25, 2020

1025

 1-समय

कृष्णा वर्मा

 

समय बड़ा बलवान रे भैया

किसको दें इल्ज़ाम रे भैया

 

सतरंगी सपने थे पाले

वक़्त कर गया पल में काले

सींचा जिन्हें अमी  देकरके

वही दे गए दिल पे छाले।

 

आँखों में आँसू के धारे

वही दे गए जो थे प्यारे

उनको कुछ अहसास नहीं

झाग हुए हम पी-पी खारे।

 

दुख की लम्बी साँझ दे गए

हाथ ग़मों की  झाँझ दे गए

ऐसी पीड़ा शूल दे गए

ख़्वाब सभी निर्मूल हो गए।

 

हाथों से पतवार खो गई

नैया भी मझधार हो गई

कौन सुने अब किसे पुकारें

रह गए कितने दूर किनारे

पता न हम बेहोश थे भैया

या किस्मत का दोष था भैया

दिल में बचा मलाल रे भैया

समय बड़ा बलवान रे भैया।

 

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2-अनिता ललित

 

पराए देश,

जो लगे अकेला

लाज़िम ही है!

अपनों में रहके भी

जो अकेलापन झेले –उसका क्या?

 

क्यों होता ऐसा -जिसका नाम

आपकी साँसें, हर पल गुने,

उसके लिए –आपका होना ...

बस! होना है!

दाल, चावल, रोटी –

ज्यों खाना ही है!

 

क्या चाहिए इस दिल को?

क्यों है इतना भारी –

जब है ख़ाली-ख़ाली!

 

क्यों इतनी अपेक्षाएँ?

जो दुःख पहुँचाती ख़ुद को?

ख़यालों का जंगल, सवालों के तूफ़ान, चु

भते काँटों -सी बातें –

ये कैसी बेचैन शख़्सियत है?

कहाँ गया वो सुकूँ का ख़ज़ाना?

यह कैसी दहशत सवार है मन में?

ये डर –खो देने का!

बार-बार खोने के बाद, फिर से खो देने का?

 

अपना था क्या, जिसे पा लेने की ज़िद है?

साथ लाये थे क्या, जिसे बाँधने का जुनूँ है?

सभी रिश्ते-नाते, ज़ेवर की तरह –

कुछ वक़्त तन-संग सजें,

फिर कुछ सिमटें, कुछ टूटें,

कुछ बोझ की तरह छूटें!

अपना साथ, ख़ुद अपने सिवा -

किसी ने कभीनिभाया है क्या?

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Sunday, March 22, 2020

960


1-सुनो ओ साथी
डॉ. सुरंगमा यादव

विपदा आती
धैर्य आजमाती
घबराना नहीं
सुनो ओ साथी
जल्द ही दूर होगी
ये भी परेशानी
खुद भी बचो, औरों को बचाओ
घर से बाहर
कम ही जाओ
मचा रहा कोहराम
कोरोना आततायी
जिसने सभी की
नींद उड़ा
महाशक्तियाँ पस्त
लगा रहीं आरोप-प्रत्यारोप
कहीं पर जारी
सत्ता- संग्राम
शुरू हो गयी कालाबाजारी
प्रकृति की माया
मानव अब तक
समझ न पाया
घूम रहा काल
देश-विदेश
हो रहे बेहाल
हुआ लॉक डाउन
गरीब की मुश्किल
वायरस और भूख
दोनों से लड़ना
पड़ रहा भारी
हे ईश्वर!
करो चमत्कार
मिटे यह हाहाकार!
-0-
2-अनिता ललित
 1-कविता

कविता -केवल शब्दों का हुजूम नहीं है!
ये दिल की धड़कन है,
आत्मा का स्पंदन है!
सम्वेदना का स्वर है,
आराधना का दर है!
ये दिल से निकलकर
दिल तक पहुँचने वाली आवाज़ है!
ये रूह को 
रूह से बाँधने का आग़ाज़ है!
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2. कुछ पल जो मिले, ये नेमत हैं!
अनिता ललित

भाग-दौड़भरी ज़िन्दगी में
सब पाने की जद्दोजहद में,
इंसां अपनों को भूल गया,
अपने क्या! ख़ुद को ही भूल गया,
प्रकृति को याद कहाँ रखता!
उसकी चाहत थी दीवानी,
क़ुदरत से की फिर मनमानी!
बरसों जीने का ख़्वाब लिए
लम्हों की क़ीमत भूल गया!
अब क़ुदरत ने भी ठानी है!
अपनी मर्ज़ी बतलानी है!

इंसां ने भी ये जान लिया -
दुनिया का क्या! वो फ़ानी है!
अपनों से प्रीत निभानी है!
कुछ पल जो मिले -
ये नेमत हैं!
पलकों पर इनको हम रख लें!
अपनों के नेह के साये में
आओ! इन लम्हों में जी लें!
जीवन में गर कुछ पाना है,
तो स्वयं के भीतर जाना है,
अपनों का साथ निभाना है,
अपने आप को पाना है!



Tuesday, January 21, 2020

946-दोहे


दोहे
 1-अनिता ललित                         
1
तुम बिन कुछ भाता नहीं, टूटी मन की आस।
लगती फीकी चाँदनी, आँखें बहुत उदास।।
2
रिश्तों की बोली लगे, कैसा जग का खेल
मतलब से मिलते गले,, भूले मन का मेल।।
3
रिश्तों की क़ीमत यहाँ, जिसने समझी आज
दुख उसके बाँटें सभी, पूरे होते काज।।
4
छोटे पंख पसार कर, उड़ने की ले आस
दाना बिखरा न मिला, चिड़िया आज उदास।। 
5
कितना भी हँस लीजिए, छिपे न मन की पीर
सहरा होठों पर ढले, अँखियन छलके नीर।।  
6
छह-छह बच्चे पालते, मात-पिता क संग
बूढ़े हों माँ-बाप जब, बच्चे होते तंग।।
7
मैंने तो चाहा सदा, पाऊँ तेरा साथ 
तूने क्यों हर पल छला, छोड़ा मेरा हाथ।।
8
फूल कहे 'ना त्यागि!', ये काँटों का हार  
अपनों का उपहार ये, इस जीवन का सार।।
9
अपनों ने कुछ यूँ छला, छीना प्रेम-उजास। 
अश्कों में बहने लगी, मन की हर इक आस।।
10
सुख-दुख के ही ख्रेल हैं, क्या अवसर, क्या मोड़
अपने ही हैं बाँधते, अपने देते तोड़।।
-0-
2-डॉ.सुरंगमा यादव
1
कहना था हमको बहुत, ढूँढे शब्द हजार।
बात जुबाँ पर रुक गई,देखो फिर इस बार।।
2
मिलन खुमारी थी चढ़ी,अलसा थे नैन।
झकझोरा   दुर्दैव ने ,स्वप्न झरे बेचैन।।
3
कपट, बुराई ना छिपे, कितने करो उपाय।
जल में बैठी रेत ज्यों,हिलते ही उतरा।।
4
दर्द दिया तुमने हमें,किया बहुत उपकार।
गिरकर उठने की कला,सिखा गए दिलदार।।
5
बाधाओं से   हारते ,कर्महीन  इंसान ।
अथ से पहले अंत का,कर लेते अनुमान।।
6
सुगम राह ही चाहता,मन कैसा नादान।
लंबी दूरी देखकर , भरता नहीं उड़ान।।
7
खूब दिखा जिंदगी, नखरे और गुरूर।
चल देती मुँह फेरकर,पल में कितनी दूर।।
8
मीठा-मीठा बोलकर, दे दी गहरी चोट।
शब्द आवरण में ढका,मन का सारा खोट।।
9
मन आँगन में रोप दो, प्रेम-दया की बेल।
कटुता मिट जा सभी ,बढ़े परस्पर मेल।।
10
धूप सयानी हो गई, बचपन में ही खूब।
गरमी की देखो हनक ,सूखी जा दूब।।
-0-
3-मंजूषा मन
निशदिन खोजा आपको, थामे मन का छोर।
रहे  हृदय  से   दूर  जबभीगे  नैना -कोर।