पथ के साथी

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Friday, May 26, 2017

740

1-कृष्णा वर्मा

माँ-1

घटती है पल-पल
बाँटने को सुख
मिटती है छिन-छिन
 जिलाने को खुशियों के प्राण
मथती है ताउम्र
र्त्तव्यों का सागर
फिर क्यों
खड़ी रह जाती है माँ
किनारों पर काई -सी।
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माँ-2

दिन- दिन घटी पल-पल मिटी
कई बार बिखरी
तुम्हें ऊँचा उठाने की चाह में
मुझमें भी थी क़ाबिलियत कामयाब होने की
पर लिख दी थी मैंने जीवन के वसीयतनामे में
अपनी सारी ऊर्जा तुम्हारे नाम
कि तुम छू पाओ अपना आकाश
चुराकर अपनी हथेलियों से
अपने हिस्से की शोहरत की रेखा
खींच दी थी तुम्हारी हथेलियों पर
कि तुम भर सको परवाज़
ग़ैर ज़िम्मेदारी जानकर
ताक पर धर दिया था तुम्हारे लिए
मैंने अपनी हर चाहत को
और जीवन का तमाम सुख निहित कर लिया था
केवल तुम्हारी परवरिश में
पर तुम तो
मेरी ममता और दोस्ताना रवैये को
हलके में ही लेने लगे
हर छोटी बात को 
ज़िम्मेदारी का बोझ जान खीजने लगे
अपनी व्यस्तता जताने का स्वांग रचने लगे
देखते-देखते तुम्हारे हाथ
संस्कारों की अँगुली छोड़ने लगे 
कभी कुछ नज़रअंदाज़ नहीं किया था मैंने
अपनी सहूलियतों के लिए
और ना ही कभी अपने सुख की अपेक्षाएँ कीं
और तुम
अपने स्वार्थ के आगे सीख ही ना पाए
अपनी ज़िम्मेदारियों की गम्भीरता को
तुम तो
अपनी तथाकथित आज़ादी अपनी मनमानी के लिए
अनदेखा करने लगे अपने अभिभावकों को
आए दिन बढ़ने लगीं तुम्हारी बदसलूकियाँ
ज़माने की विषाक्त हवा जान
भीतर उठती अपनी पीड़ा को
नित बुहार देती ममता की बुहारी से
और सहने की इस निजता ने शायद
आँकने ही न दिया आज तक तुम्हें छोटा।
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 2-मंजूषा मन
भोर और साँझ के बीच
थी एक लम्बी दूरी
एक पूरा दिन...

भोर ने शुरू किया सफर
मंजिल तक जाने का
दौड़ते हाँफते
भागी पूरा दिन...
आकाश की तश्तरी पर रखे
सूरज की सिंदूरी डिबिया..

झुलसती रही
सहती रही जलन
और खोया अपना अस्तित्व...

पूरी उम्मीद थी
कि इस सफर में 
कहीं न कहीं/ कोई न कोई
तक रहा होगा राह
किसी को तो होगा इंतज़ार,

लहूलुहान पैर, झुलसी काया ले
तै हुआ पूरा सफर,
न मिला कोई
हाथ आई केवल निराशा...

भोर ने छोड़ी नहीं उम्मीद की डोर
अगले दिन फिर
शुरू हुआ यही सफर...

धरती घूमती रही अपनी धुरी पर
जीवन चलता रहा 
अपनी रफ्तार में....

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3- सुषमा धीरज

अच्छा सुन...
कोई तो तरीका होगा
जो तू आए भी न
और मैं छू भी सकूँ ...
अच्छा बता ...
कोई तो ज़रिया होगा
जो तू कहे भी न
और मैं सुन भी सब सकूँ ...
अच्छा कह तो...
कोई रस्ता तो होगा
जो तू लौटे न भी
फिर भी मिल मैं सकूँ ....
जब शरीर में था तू
तब दूर भी पास था..
आज रूह बन के पास है  ...
पर जिस्म पहना नही तूने
तो छुऊं कैसे भला तुझे ....
बता न कोई तो रस्ता होगा
कोई जगह तो होगी
कोई तरीका तो होगा
जहां तेरी टीम में शामिल हो
फिर से खेलना
मुमकिन हो
और तेरे पीछे छुपके
निश्चिंत साँस ले सकूँ कि
तेरे होते मुझे क्या डर
जीत ही जाना है मैंने..
पर अब तो डर लगता है...
बहुत डर लगता है तेरे बिन
..........

बता न कोई तो जरिया होगा ...