प्रो. विनीत मोहन औदिच्य
ग्राम्य जीवन
सोकर
उठ जाने को मानो सारे जग से कहता
जल
भरने घट लेकर जातीं ललनाएँ पनघट पर
करने
को स्नान जमा हों नारी सब सरि तट पर
हरीतिमा
की चादर ओढ़े वसुंधरा इठलाती
खेतों
की ये मेड़ भी देखो इधर उधर बल खाती
सर्पीले
लंबे रस्ते पर पसरी बूढ़े बरगद की छाया
स्वेद
बिन्दु ,श्रम के चमकाएँ क्लांत कृषक की काया।
फूली
सरसों शीत पवन से मंद- मंद सी लहराए
चारा
खाकर गौ माता भी बैठ चैन से पगुराए
मधुर
मधुर घंटी की ध्वनि नीरवता में स्वर भरती
पेड़ों
के झुरमुट में छिपकर कोयल कलरव करती
प्रेम
दया करुणा से सुरभित,
रहता जीवन ग्राम्य
जीना-
मरना इस माटी में,
एकमात्र हो काम्य।।
समाधियाँ
कच्ची
मिट्टी की समाधियाँ कहो भला हैं जानें किसकी
चिर
निद्रा में सोएँ हैं अब जो अनजाने से थे उनकी
ऊबड़
खाबड़ शिल्प रहित हैं शिलालेख भी सूने- सूने
रहें
सुसज्जित सब ऋतुओं में घास -फूस से बढ़ते दूने।
निर्धनता
ने इन्हें सदा ही गोद में अपनी शिशुवत् पाला
मिले
अवसरों को पीड़ा ने बल से चूर- चूर कर डाला
क्रूर
नियति के तले कुचल कर इच्छा ने दम तोड़ा
और
अशिक्षा ने शापित की भाग्य रेख को मोड़ा।
कोई
बनता कवि,
लेखक, या वीर ख्यात अभिनेता
करता
वह नेतृत्व देश का यदि समय जो अवसर देता
पेट
पालने के यत्नों में स्वयं को रहा अंत तक खपाता
दिन
भर के श्रम से थक कर वह बहुधा ही सो जाता
संतोषी, संयमित
रहे जो, अर्पण करो इन्हें पुष्पांजलि
जीवन
से हारे वीरों को,
यही सच्ची होगी श्रद्धांजलि।।
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(विभागाध्यक्ष अंग्रेजी, शासकीय महाविद्यालय,ढाना),
सॉनेटियर एवं ग़ज़लकार