पथ के साथी

Thursday, January 26, 2012

कल्‍पना या यथार्थ


सीमा स्‍मृति

उडेल सको अपनी थ‍कान,मुस्कान
 चिढ़ और गुस्‍सा
  चिल्‍लाया जा सके
 झल्‍लाया जा सके
  शब्‍द बोझ न हो
 जहाँ सोच पर बंधन न हो
 दर्द को दर्द की ही तरह बाँटा जा सके
 खुशी को जिया जा सके
 प्रश्‍नों के तीर न हों
 डर न हो रिश्‍ते की टूटन का
 भय न हो खो देने का
 छूट हो कुछ भी कहने की-
मन में जो भी धमक दे
 जहाँ लम्‍हें शर्तो पर न जिए जाएँ
 माँगे हो
न पूरी होने पर, अनजाना डर न हो
आदर सम्‍मान केवल शब्‍दों की चाशनी में लिपटे न हों,
रिश्‍ता बन सके ,आईना जिन्‍दगी का
पाना चाहता है हर शख़्स यह खूबसूरत रिश्‍ता
दे पाना, यह खूबसूरती
 आज भी है, प्रश्‍नों की सलीब पर ।