मंजूषा मन की कविताएँ
हार
कर 
एक
बार
टेक
दिए घुटने,
फिर
हार के डर से
और
फिर 
पीड़ा
और दर्द से घबराकर
धीरे
-धीरे
ऐसे
ही बन गई आदत
घुटनों
के बल चलने की।
लगने
लगा डर
खड़े
होने से।
2.
कोशिशें/ मंजूषा मन
वो
जब भी कोशिश करती
खड़े
होने की,
वे
कहते -"बैठ जाओ"
वो
जब चाहती नज़रें मिलाना
वे
क्रोधित हो कहते -"नज़र नीची रखो"
अगर
वो कोशिश करती 
अपने
मन की कहने की
वे
ललकारते -"खबरदार!"
वो
दुबकी रही
वो
नज़रें झुकाए रही
वो
मुहँ छुपाए रही
वो
सहमी रही
वो
डरी रही
और
धीरे- धीरे
ये
डर
रगों
में जगह बनाता गया 
बहने
लगा खून में...
पर
अब भी...
वो
करती है कोशिशें
खड़े
होने की
नज़र
उठाने की
खिलखिलाने
की
अपनी
बात कहने की
और
उसे विश्वास है
एक
न एक दिन
कोशिशें
कामयाब ज़रूर होतीं हैं।
3.सबसे ज़्यादा
जिन
की रफ़्तार तेज़ थी
सबसे
ज़्यादा  लगाए गए रोड़े
उन्हीं
की राहों में,
जिसने
सिर उठाकर देखा
आसमान
की ओर
सबसे
ज़्यादा काटे गए 
उसी
के पंख,
जो
उठ खड़े हुए बार-बार
सबसे
ज़्यादा रौंदा गया
उन्हें
ही,
जिसने
कोशिश की मुहँ खोलने की
कुछ
बोलने की
सबसे
ज़्यादा बाँधी गईं
पट्टियाँ
उनके
मुँह पर,
हाँ...
घुटने
टेकने वालों के लिए
कुछ
रियायतें दी गईं ।
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
